गुरू बिना भवनिधी तरई न कोई। जो बिरंची संकर सम होई॥
मनुष्य का आधार ईश्वर की भक्त है: उमा जी
पुलिस लाईन मंदिर पर त्रिदिवसीय संत्सग
मुरैना 13 जुलाई 09 (दैनिक मध्यराज्य) शनिवार को दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के द्वारा पुलिस लाईन मुरैना मंन्दिर सिंटी कोतवाली के तत्वाधान में एक त्रिदिवसीय संत्सग एवं भजन संर्कीतन का कार्यक्रम आयोजित किया गया है। जिसमें सतगुरू सर्व श्री आशुतोष जी महाराजकी प्रचारक श्ष्यिाओं द्वारा सुमधुर भजन एवं संत्सग विचार प्रस्तुत किया गया। इस कार्यक्रम में श्री गुरू महाराज की शिष्या साध्वी सुश्री उमा भारती जी ने समझाया कि आज भक्ति का अर्थ होता है, जुड़ना लेकिन आज इंसान प्रभु से विभक्त हो चुका है, उससे टुट चूका है,और यही कारण है कि इंसान के जीवन में अनेक समस्याऐं है। क्यों कि जिस प्रकार मछली का आधार जल है, मकान का आधार नीव है और पेड़ का आधार जड़ है उसी प्रकार मनुष्य का आधार वह ईश्वर है। उसकी भक्ति है। लेकिन मनुष्य अपने आधार से जुदा है और संत जब आते है तो मनुष्य को अपने वास्तिविक लक्ष्य उस प्रभु से जोड़ते है इस विकरों रूपी अंधकार की निद्रा से जगाते है। और उसे वह भक्ति का सही मार्ग दिखाते है। यह उदगार संस्थान की ओर से प्रचारक शिष्याओं ने किए। इसी कार्यक्रम में तीसरे दिन सतगुरू आशुतोष जी महाराज की शिष्या सुश्री विदुषी महायोगा भारती जी के द्वारा सत्संग प्रवचन दिए गये जिसमें उन्होने गुरू की महिमा पर विचार दिए उन्होने कहाँ की संसार में अगर किसी गुरू को सिखना है तो एक मास्टर की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार अगर हम अध्यात्मिक जगत के बारे में जानना चाहते है तो किसी परफेक्ट मास्टर की आवश्यकता है, जैसे कि हमारे ग्रंथों में कहां ..
गुरू बिना भवनिधी तरई न कोई।
जो बिरंची शंकर सम होई॥
बिना गुरू के आप भवसागर से पार नही हो सकते चाहे आपके अन्दर भगवान शंकर के जितनी शक्ति भी क्यों न हो। लेकिन जहां हमारे संतो ने ये कहां कि गुरू की आवश्यकता है, वही पर उन्होने गुरू की पहचान भी दी। गुरूकी पहचान उसका बाहरी आचरण लिवाज या उसके पीछे लगी भीड नहीं बल्कि उसकी पहचान तो उसका ज्ञान है।
की वह ज्ञान में क्या देता है। तभी हमारे भक्तो ने हर किसी गुरू की वंदना नही की उन्होंने कहां-
अखंण्ड मण्डलाकारमं व्याप्तं चैन चराचरम।
तत्दपदं दर्शितं चैन तस्मै श्री गुरूवें नम:॥
जो परमात्मा अखण्ड है। सारेस मण्डल व चरअचर में व्याप्त है। ऐसे गुरू के की चरणों में वंदन है ऐसा विदुषी जी उदगार थे।
कोई टिप्पणी नहीं :
एक टिप्पणी भेजें