गुरुवार, 9 जून 2011

म.प्र.में बिजली सप्लाइ ठप्प : चंबल में बिजली कटौती फिर सिर चढ़ कर बोली ..........

म.प्र. में बिजली सप्लाइ ठप्प : चंबल में बिजली कटौती फिर सिर चढ़ कर बोली ..........

मुरैना 9 जून 2011 । मुरैना एवं भिण्‍ड जिला में प्रतिदिन की जा रही साढ़े सात घण्‍टे की डिक्‍लेयर्ड बिजली कटौती के बाद अब भीषण गर्मी के मौसम में अतिरिक्‍त बिजली कटौती का चम्‍बल संभाग के निवासियों को और अधिक सामना करना पड़ रहा है ।

आजकल जहॉं रात में शाम 5 बजे  से रात 12 बजे तक की अतिरिक्‍त बिजली कटौती की जा रही है वहीं इस भीषण गर्मी में प्रात: साढ़े पांच बजे से काटी गयी बिजली कटौती इस समाचार के लिखे और प्रकाशित किये जाने के वक्‍त तक समूचे चंबल संभाग में बिजली कटोती जारी है । वर्तमान में शहर में बिजली का शट डाउन चल रहा है । उल्लेखनीय है कि चम्‍बल के ६५ फीसदी ग्रामीण क्षेत्र में बिजली है ही नहीं वहीं जहॉं हैं वहॉं दो दिन छोड़ कर महज ४ घण्‍टे के लिये मात्र बिजली दी जा रही है । ऐन भीषण गर्मी में की जा रही अनाप शनाप भारी बिजली कटौती से जनता में भारी रोष व आक्रोश व्याप्‍त हो गया है । स्‍मरणीय है मुरेना शहर चम्बल संभाग का संभागीय मुख्‍यालय है । इस दरम्‍यान बिजली घर का शिकायत दर्ज कराने का फोन नंबर ०७५३२- २३२२४४ सहित सभी अधिकारीयों एवं कर्मचारीयों के फोन बन्‍द चल रहे हैं जो कि हरदम बिजली शट डाउन करने से पूर्व आउट ऑफ क्रेडल एवं स्विच आफॅ कर लिये जाते हें ।  

 

बुधवार, 8 जून 2011

विशेष लेख: कृषि : रोजगार का जरिया बन सकती है ग्वारपाठा की खेती

विशेष लेख: कृषि : रोजगार का जरिया बन सकती है ग्वारपाठा की खेती

श्री मनोहर कुमार जोशी*

राजस्थान में ऐसे बेरोजगार युवक जिनके पास कम से कम एक हैक्टेयर कृषि भूमि है, उनके लिए ग्वारपाठा (एलोवेरा) की खेती रोजगार का जरिया बन सकती है। शुष्क और उष्ण जलवायु में पैदा होने वाली ग्वारपाठा की खेती के लिए राजस्थान की जलवायु और मिट्टी सर्वाधिक उत्तम मानी जाती है। ग्वारपाठा मूलत: दो प्रकार का होता है, एक खारा ग्वारपाठा और दूसरा मीठा ग्वारपाठा। खारा ग्वारपाठा आयुर्वेदिक औषधियों एवं सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री तैयार करने के लिए काम में लिया जाता है, जबकि मीठा ग्वारपाठा का इस्तेमाल अचार और सब्जी बनाने के लिए होता है।

कृषि विशेषज्ञों एवं जानकारों के मुताबिक राजस्थान में फिलहाल तीन हजार हैक्टेयर से अधिक भूभाग पर किसान ग्वारपाठे की खेती कर रहे हैं। एक हैक्टेयर में ग्वारपाठा के बीस हजार पौधे लगाये जा सकते हैं। इस पर वर्ष भर में 50 से 60 हजार रूपये का खर्चा आता है। पूरे साल में वर्षा के मौसम को छोड़ कर करीब 12 बार सिंचाई की जरूरत होती है। गर्मी के मौसम में महीने में एक अथवा दो बार सिंचाई करनी पड़ती है। ग्वारपाठे की अच्छी फसल के लिए 15 टन प्रति हैक्टेयर गोबर की खाद दी जा सकती है। एक साल बाद पत्तियों के रूप में उत्पादन शुरू हो जाता है। सिंचित क्षेत्र में 30 टन तथा असिंचित क्षेत्र में 20 टन प्रति हैक्टेयर सालाना ग्वारपाठे का उत्पादन होता है।

एक किसान को ग्वारपाठा की खेती से लगभग 40 हजार रूपये प्रति हैक्टेयर लाभ हो जाता है। ग्वारपाठे की पत्तियों की तुड़ाई वर्ष में तीन से चार बार की जाती है। किसान को मण्डी अथवा बाजार में फसल ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। ग्वारपाठा के उत्पाद बनाने वाली फर्म अथवा इकाईयों से सम्पर्क करने पर उनके प्रतिनिधि खुद खेत पर आकर कटी पत्तियां खरीद ले जाते हैं। खेत में एक बार इसे उगाने के बाद इस पौधे का विस्तार होता रहता है।

मदर प्लांट्स (मातृ पौध) के पास डॉटर प्लांट्स (प्ररोह-छोटे पौधे) तैयार होते रहते हैं। किसान इन छोटे पौधों को बेच कर अतिरिक्त लाभ भी कमा सकते हैं। ग्वारपाठे के छोटे पौधों की पहली बार खेती करने वाले अथवा नर्सरी लगाने वाले खरीद कर ले जाते हैं। किसान को अपने खेत में ग्वारपाठे उगाने के लिए

छोटे पौधों को खरीदते समय इस बात की सावधानी रखनी चाहिए की प्ररोह 9 से 12 इंच का हो, इससे छोटे पौधे सस्ते तो मिल जाते हैं, लेकिन इन पौधों के विकसित होने से पहले ही उनके नष्ट होने का खतरा रहता है। ग्वारपाठे के छोटे पौधे एक से डेढ़ रूपघ् में मिल जाते हैं।

राजस्थान में ग्वारपाठा की खेती बीकानेर संभाग में सर्वाधिक होती है। इसके अलावा जोधपुर संभाग में भी कई गांवों में इसकी खेती की जा रही है। इस औषधीय पौधे की खेती के लिए राष्ट्रीय बागवानी मिशन प्रति हैक्टेयर 20 प्रतिशत का अनुदान 5 हैक्टेयर तक प्रदान करता है। उद्यान निदेशालय की एक रिपोर्ट के अनुसार एक हैक्टेयर पर ग्वारपाठा की खेती के लिए होने वाले 42500 रूपये के खर्च में से 8500 रूपये का अनुदान सरकार उपलब्ध कराती है। जोधपुर स्थिति केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान एकाजरी एवं जयपुर के समीप जोबनेर में कृषि अनुसंधान केन्द्र में ग्वारपाठे की खेती के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा जयपुर में कृषि पंत भवन में उद्यान निदेशालय से भी विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। आयुर्वेद में घृतकुमारी और स्थानीय बोलचाल में ग्वारपाठा के रूप को जानने वाले इस प्राचीन पौधे की औषधीय उत्पादों में खास उपादेयता है, जबकि सौन्दर्य प्रसाधान की सामग्री में यह ग्वारपाठा के रूप में लोकप्रिय है। हर्बल उत्पादों की वस्तुओं में ग्वारपाठा सबसे पहले पाया जाता है।

जोधपुर संभाग के जैसलमेर जिले के पोकरण, राजमथाई, डाबला, बांधेवा आदि गांवों में ग्वारपाठे की खेती का विस्तार हो रहा है। यहां होने वाला ग्वारपाठा तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से हरिद्वार भेजा जाता है। इसकी खेती करने वाले सागरमल, जोगराज एवं हाजी खां के अनुसार हरिद्वार स्थित आयुर्वेदिक औषधियां बनाने वाली एक कंपनी अपना वाहन लेकर यहां आती है तथा ग्वारपाठा खरीद कर ले जाती है।

जिले में 200 बीघा से अधिक भूमि पर इसकी खेती की जा रही है। इसके अतिरिक्त नागौर, अजमेर, सीकर, झुंझुनू घ्घ्घ् चुरू सहित राज्य के विभिन्न जिलों में इसकी खेती के प्रति किसानों में जागृति आयी है तथा किसान ग्वारपाठा की खेती से जुड़ने लगे हैं।

सीकर जिले के एक किसान को ग्वारपाठे का महत्व उस वक्त समझ में आयाए जब खेत-खलिहान में लगी आग से वहां बंधी भैंसे झुलस गई और उसके उपचार में ग्वारपाठा का गूदा रामबाण औषधि साबित हुआ।

पाली जिले के निमाज गांव के प्रगतिशील किसान श्री मदनलाल देवड़ा जिन्होंने अपने खेत पर ग्वारपाठा और आंवला उगाकर इसका मूल्यसंवर्धन तथा प्रसंस्करण करना शुरू कर दिया है, वे बताते हैं कि मैंने अपने खेत में आंवला एवं ग्वारपाठा की खेती को चुनौती के तौर पर लिया। आज मेरे खेत में साढ़े तीन हैक्टेयर में ग्वारपाठा उगा हुआ है। शुरू में लागत ज्यादा आती है, इसलिए किसान कतराता है। वहीं दूसरी ओर इसकी प्रक्रिया का कार्य करोड़पतियों के हाथ में होने से किसानों को उनकी ओर देखना पड़ता है। वे कहते हैं कि मुझे आज भी याद है कि मैंने चुरू में आंवले का ज्यूस चार बोतल से शुरू किया था। बीच-बीच में ऐसा भी लगा कि क्या मैं अपने उत्पाद बाजार में चला पाऊंगा ? लेकिन उत्पाद की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया तथा हौसला नहीं छोड़ा। आज मुझे इस बात की खुशी है कि दक्षिण भारत के बंगलुरू और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में मेरे द्वारा तैयार ग्वारपाठा एवं आंवला के रस ने दस्तक दे दी है और दो से ढाई लाख रूपये का रस हर माह वहां भेज रहा हूं। पाली जिले में इस समय 27 हैक्टेयर पर इसकी खेती की जा रही है। नागौर में भी कुछ काश्तकार इसकी खेती तथा फसलोत्तर कार्य में लगे हुये हैं।

इसकी खेती करने वाले काश्तकारों के अनुसार ग्वारपाठा का पौधा ऐसा पौधा है, जो थोड़ी .सी मेहनत के बाद बंजर भूमि में भी उग जाता है। इसे पशु, पक्षी तथा जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। राजस्थान के मरूस्थलीय इलाके में रासायनिक खादों का कम उपयोग होने से जैविक उत्पादन ज्यादा प्राप्त हो सकता है।

एक कृषि अधिकारी के मुताबिक राजस्थान में ग्वारपाठा के प्रसंस्‍करण कार्य में छोटी-बड़ी 20 से 30 इकाईयां लगी हुई हैं। ये इकाईयां बड़े उद्योगों की मांग के अनुरूप माल की आपूर्ति करती हैं। आने वाले समय में राजस्थान में व्यापक स्तर पर इसकी खेती की जा सकती है।

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स्वतंत्र पत्रकार

 

वि‍शेष लेख : तीर्थ : अमरनाथ यात्रा 2011 – उलटी गि‍नती शुरु

वि‍शेष लेख : तीर्थ : अमरनाथ यात्रा 2011 – उलटी गि‍नती शुरु

 

अशोक हांडू*

 

    कश्‍मीर स्‍थि‍त श्री अमरनाथ की पवि‍त्र गुफा की तीर्थयात्रा इस वर्ष 29 जून से आरंभ हो रही है। यात्रा 13 अगस्‍त यानी श्रावणी पूर्णि‍मा तक चलेगी। इसी दि‍न रक्षा बंधन भी है। तीर्थयात्रि‍यों के लि‍ए राज्‍य सरकार द्वारा सभी प्रबंध पूरे कर लेने के साथ ही यात्रा की उलटी गि‍नती शुरु हो गई है।

श्री अमरनाथ यात्रा 5000 वर्षों से चल रही है और केवल कुछ ही दि‍न चलती थी। उसमें दि‍न प्रति‍ दि‍न लोगों की संख्‍या बढ़ती जा रही है। अब यह यात्रा डेढ़ महीने से अधि‍क समय तक जारी रहती है और प्रति‍ वर्ष चार लाख से ज्‍यादा लोग यात्रा में हि‍स्‍सा लेते हैं। 'पहले आओ, पहले जाओ' के आधार पर यात्रा के लि‍ए पंजीकरण शुरु कर दि‍या गया है। शुरु के कुछ दि‍नों में ही दो लाख से अधि‍क संख्‍या में तीर्थयात्रि‍यों ने पंजीकरण करवाया है।

     श्री अमरनाथ की पवि‍त्र गुफा हि‍मालय पर्वतमाला में स्‍थि‍त है और हि‍माच्‍छादि‍त पर्वतों से घि‍री है। पवि‍त्र गुफा श्रीनगर से 96 कि‍लोमीटर दूर है और यात्रा का आधार शि‍वि‍र पहलगाम के मनोहारी पर्यटन स्‍थल में है। तीर्थयात्रि‍यों के रहने के लि‍ए यात्रा के दौरान तंबुओं वाला एक वि‍शाल नगर‑सा यहां बन जाता है। पहलगाम से पवि‍त्र गुफा की दूरी 46 कि‍लोमीटर है। तीर्थयात्री यहीं से पारंपरि‍क रास्‍ते पर चार दि‍नों की यात्रा पर नि‍कलते हैं और चंदनवाड़ी, शेषनाग तथा पंचतरणी में रात्रि‍ वि‍श्राम करते हैं। पहलगाम से चंदनवाड़ी की दूरी तीन कि‍लोमीटर है और यहां से आगे की यात्रा पैदल करनी पड़ती है। बुजुर्गों के लि‍ए घोड़े और बीमार व अक्षम व्यक्‍ति‍यों के लि‍ए पालकी उपलब्‍ध है, जि‍से चार लोग कंधों पर लेकर चलते हैं। सभी तरफ 'बाबा अमरनाथ की जय' का घोष सुनाई देता रहता है। रास्‍ते में सबसे ऊंचा स्‍थान महागुन आता है, जो समुद्री सतह से लगभग 14500 फीट ऊंचा है। पवि‍त्र गुफा थोड़ा नीचे यानी लगभग 1300 फीट की ऊंचाई पर स्‍थि‍त है।

आधि‍कारि‍क रूप से यात्रा का आयोजन राज्‍य सरकार श्री अमरनाथ यात्रा न्‍यास के सहयोग से करती है। यात्रा के दौरान सरकारी एजेंसि‍यां रास्‍ते भर में आवश्‍यक सुवि‍धाएं प्रदान करती हैं। इन सुवि‍धाओं में घोड़ों की व्‍यवस्‍था, जलापूर्ति‍, संचार सुवि‍धा, अलाव की व्‍यवस्‍था और सस्‍ते राशन की दुकानें शामि‍ल हैं। देश भर के कई स्‍वयंसेवी संगठन पूरे रास्‍ते में पांडाल, भोजन और अन्‍य सुवि‍धाओं की व्‍यवस्‍था करते हैं।

तीर्थयात्रा के महत्‍व के बारे में कई कथाएं हैं। सबसे महत्‍वपूर्ण कथा यह है कि‍ इस पवि‍त्र गुफा में भगवान शि‍व ने अपनी पत्‍नी माता पार्वती को अमरत्‍व का रहस्‍य बताया था। दो कबूतरों ने इस वार्तालाप को सुन लि‍या और अमर हो गए। ये दोनों कबूतर आज भी श्रावणी पूर्णि‍मा के दि‍न पवि‍त्र गुफा में प्रकट होते हैं। यह आश्‍चर्य का वि‍षय है कि‍ जि‍स जलवायु में कहीं कोई पक्षी नजर नहीं आता, कबूतरों का यह जोड़ा कैसे जीवि‍त रहता है। श्रावणी पूर्णि‍मा के दौरान पवि‍त्र गुफा में प्राकृति‍क बर्फ का शि‍वलिंग अपने आप आकार लेता है जो चंद्रमा की कलाओं के साथ स्‍वयं भी घटता‑बढ़ता है। बर्फ के दो और आकार वहां वि‍द्यमान हैं, जो माता पार्वती और भगवान गणेश के स्‍वरूप हैं। पुराणों में भी पवि‍त्र गुफा का उल्‍लेख मि‍लता है।

दूसरी कथा के अनुसार प्राचीन काल में कश्‍मीर घाटी एक बड़ी झील के भीतर स्‍थि‍त थी। कश्‍यप ऋषि‍ ने झील के जल को कई धाराओं द्वारा बाहर नि‍काल कर घाटी बसाई थी। उन दि‍नों, भृगु ऋषि‍ हि‍मालय की यात्रा पर घाटी में आए थे और वह पहले व्‍यक्‍ति‍ थे, जि‍सने पवि‍त्र गुफा की खोज की थी।

 

     एक अन्‍य कथा के अनुसार एक कश्‍मीरी गड़रि‍या बूटा मलि‍क, जब उस क्षेत्र में जानवर चरा रहा था तो उसने पवि‍त्र गुफा की खोज की थी। पवि‍त्र गुफा में जो चढ़ावा चढ़ता है, उसका एक हि‍स्‍सा आज भी मलि‍क परि‍वार को प्राप्‍त होता है।

अपने कश्‍मीर वृत्‍तांत, जि‍से कल्‍हण द्वारा रचि‍त 'राजतरंगणी' की उत्‍तर कथा कहा जाता है, जोनराजा ने कहा है कि‍ सुल्‍तान जैनुल आबदीन (1420‑1470) ने लि‍द्दर नदी के बाएं कि‍नारे पर नहर बनवाते समय श्री अमरनाथ की यात्रा की थी।

कश्‍मीर के लोगों के लि‍ए इस तीर्थयात्रा का खास महत्‍व है। घाटी में  सदि‍यों से साथ‑साथ रहने वाले हि‍न्‍दुओं और मुसलमानों के आपसी भाईचारे को यात्रा ने मजबूत कि‍या है। यद्यपि‍ यह हि‍न्‍दुओं की तीर्थयात्रा है, लेकि‍न मुसलमान, तीर्थयात्रि‍यों को सभी जरूरी सेवाएं उपलब्‍ध कराकर समृद्ध पंथनि‍रपेक्ष परंपराओं का नि‍र्वहन करते हैं। इन सेवाओं में घोड़ों व पि‍ट्ठुओं (बुजुर्गों और बीमार लोगों को पालकी में बि‍ठाकर ले जाना) की सेवाएं शामि‍ल हैं। कुछ वर्षों पहले की बात है, जब खराब मौसम में तीर्थयात्री फंस गए थे, तब अनन्‍तनाग क्षेत्र के मुसलमानों ने उन्‍हें अपने यहां पनाह दी थी।

2006 में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बावजूद, यात्रा के उत्‍साह में कोई कमी नहीं आई है। वास्‍तवि‍कता यह है कि‍ यात्रि‍यों की संख्‍या लगातार बढ़ ही रही है। यह तीर्थयात्रा घाटी में हि‍न्‍दू‑मुस्‍लि‍म एकता का प्रतीक है।