हास्य / व्यंग्य
हुम्फ ससुरे दागी लड़ें और बागी मन मसोसें...बहुत नाइन्साफी है गब्बर भाई
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
अभी फार्म भरने का मौसम निकल गया, कल ही लास्ट डेट गुजर गयी, पॉच साल बाद आने वाली तारीख गुजर गयी । जो लपक झपक के पर्चा डाल आये वे सवारी में शामिल हो गये बकाया पॉच साल के लिये गये पानी में ।
नेता पॉंच साल ड्रीम्स देख कर स्वप्नदोष के शिकार होते हैं, हर ड्रीम में यही तारीख नजर आती है मगर पॉंच साल के लम्बे इंतजार के बाद महज सात दिन में चली भी जाती है । बहुत नाइन्साफी है ये । ये तो सरासर निर्वाचन आयोग की दादा है भइये । पॉंच साल की तारीख कम से कम 45 दिन तो चलवा दिया करो । क्या फ्लाप फिल्म की तरह हफते भर में सेल्यूलायड स्क्रीन से उतार देते है ।
मजा आना शुरू भी नहीं हो पाया था कि तारीख खल्लास हो गयी । अरे भईया हम हिन्दुस्तानी इत्ता लम्बा इंतजार खींचने के बाद इत्ती जल्दी फुरसत में नहीं आना पसन्द करते । अरे भईया नौदुर्गा भी हर छ: महीने बाद आ जातीं हैं और पूरे दस दिन बेतकल्लुफी से त्यौहार और उत्सव मनवा कर रौंग चोंग कर जातीं हैं ।
और गोया पर्चा भरने का मौसम जैसे स्वर्गीय मोरारजी जी भाई का जन्म दिन हो गया जो चार साल बाद पड़ेगा 29 फरवरी को और सुबह आकर शाम को खिसक लेगा । क्या ससुरी मध्यप्रदेश की बिजली के मानिन्द हो गया थोड़ी देर को आते हो और चले जाते हो ।
नेता पॉंच साल तड़पते हैं, फड़फड़ाते हैं, बीच में चुनाव कराने को सड़कों पर नर्राते हैं, बॉंहें, आस्तीन ऊपर सरका सरका कर जंग करते हैं, हर लोकल समस्या को नेशनल क्राइसिस कहते हैं, हर बात पर बाजार बन्द कराते हैं, हर बन्द पर चुनाव मांगते हैं, नयी सरकार के ख्वाबिया चादर तानते हैं, जनता को पॉंच साल तक बीच में चुनाव का आसरा दिलाते हैं ।
और ख्वाबों की ताबीर का बखत आता है, तो साली डेट आती है औ चली जाती है, केवल हफ्ते भर में एक्सपायर हो जाती है । नेता ढंग से लोक सेवकों की सेवा और चुनावी रंगत के पहले सिरे का आनन्द भी नहीं ले पाते , ढंग से निर्वाचन के रिंग मास्टरों को देख भी नहीं पाते कि आफिस खिड़की टेबल सब पर ताला ठुक जाता है । बहुत गलत बात है, गलत बात है ये ।
पहले दिन से चार गुने दूसरे दिन, दूसरे दिन के चार गुने तीसरे दिन इस तरह सात दिन तक पिछले दिन के चार गुने पर्चे बढ़ रहे थे, सरकार की इनकम भी बढ़ रही थी, और जब बुक्रिग की असल लाइन आना शुरू हुयी तो हाउसफुल का बोर्ड लटका कर खिड़की बन्द कर दी । गलत बात है, नाइन्साफी है ये । सोई तो मैं कहूं कि लोकतंत्र इस देश में फल फूल क्यों नहीं रिया । अब समझ में आया कि जब तक दागी आते हैं, हम पर्चे भरवाते रहते हैं और जब बागीयों का नंबर आता है तो खिड़की बन्द कर देते हैं, समानता का अधिकार नहीं है ये । अरे दागीयों की कुश्ती के बाद पराजित पहलवान बागी कहलाते हैं और बागीयों को भी चान्स बराबर मिलना चाहिये कि नहीं । हम नहीं देते, यानि समानता का अधिकार नहीं है ।
अब का होगा दागी मूंछ ऐंठकर छाती तान कर लड़ेंगे, बागी मन मसोसेंगे । एक तरफ तो सरकार कहती है कि बागी समस्या देश के माथे का कलंक है, खत्म होनी चाहिये, दूसरी तरफ खुद ऐसे करम कर कर के बागी खुद पैदा करती है, और जब दागी सरकार बना लेंगे, सरकार में बैठ जायेगें तो बागी समस्या को दस्यु समस्या या डकैत समस्या बता कर एनकाउण्टर में बेचारे बागी ठोक दिये जायेगे । गलत बात है, बहुत नाइन्साफी है ।
कुछ नेता जी मेरे पास आये तो कईयों के ई मेल मिले सब लगभग एक ही वाणी बोले दादा खबर चला दो, इण्टरनेशनल लेवल पर इण्टरनेट पर छाप दो कि अमुक नेता जी अब बागी हो गये हैं और अलां सवारी छोड़ फलां सवारी पे चढ़ बैठे हैं ।
मैंने नेता लोगों से पूछा कि इसमें खबर की क्या बात है, जाकर बगावती पर्चा डाल आओ, कल की हेडलाइन बन कर अपने आप छप जाओगे । नेता जी लोग बोले कि नहीं अब पर्चा नहीं डालना है केवल हाईकमान को ठांसना है । मैं बोला इससे का फायदा होगा । वे बोले कि कुछ नहीं हाईकमान की खोपड़ी में भी दर्द डालना है, उसने हमारी पॉंच साल की कमाई पे पानी फेरा है, नींद उड़ाई है, उसे भी नहीं सोने देना है ।
अभी एक दिन, मेरे गांव से एक बाबा और नाती साथ साथ आये, कलेक्ट्रेट के सामने से गुजरे तो कलेक्ट्रेट का बदला हुआ रंग औ रूतबा देख कर उनकी ऑंखें फटी रह गयीं । गेट पे मशीन, हाथ में मशीन, पुलिस ही पुलिस, दरवाजे की भी सील बन्द । मुरैना वालों की एक खासियत है कि सील टूटी हो दरवज्जा खुल्ला पड़ा हो तो टूट बैठते हैं, लेकिन अगर सील बन्द हो तो सील तोड़ने के लिये पड़ौसी की ओर निहारते हैं ।
कलेक्ट्रेट क्या पुलिस छावनी कहिये, या फिर आर्मी का हेड क्वार्टर कहिये । घुसो मशीन से निकलो मशीन से और संग संग मालिश करवाओ मशीन से । भईया क्या लुत्फ है । मौका है सेवा करवा लो लोकसेवकों से ।
हॉं तो बाबा और नाती वहॉं से गुजर रहे थे, नाती बोला कि बाबा जे का है रहो है, झां इतेक पुलिस कायकूं लगी है, का कोऊ काण्ड है गओ ए का ।
बाबा ने अपनी सुलभ सहज बुद्धि से अनुमान लगाते उत्तर दिया, मोय तो जे लगि रई है के केतो कोऊ अफसर काऊ डकैत ने ठोक दओ औ के फिर चुनाव आय गये होंगें, इतेक पुलिस तो तबई लगेगी ।
नाती फिर बोला काये बाबा जे पुलिस वाये करि का रहे हैं, बा दरवाजे में ते कोऊ कढ़तु है तई की जेब तलासी और जेब कटी सी कायकों कर रहे हैं ।
बाबा फिर बोले, नानें रे जे तो मसीन है, वो दरवज्जो ऐ बउमें मसीन फिट है, ऐसी हम भोपाल में देखि आय हते, भां विधानसभा में गये दंगल देखिबे सो भऊं ऐसेई कुतका से तने हते । कोई बां में ते कढ़तो सोई मसीन करती भें भें ...। और जे कुतका से हाथ में लेहें फिर रहे हैं जऊं सो ऐसेईं भें भें होति है ।
नाती बोला कि चलि बाबा अपुनुऊं जा कुतका से में ते कढ़ेंगे देखें कैंसें भें होगीं । फिर गाम में जायकें सिगन बतावेंगे , जा कुतका को किस्सा चार छ साल सुनावेंगे ।
इसके बाद बाबा और नाती दोनों ही भें दरवाजे यानि मेटल डिटेक्टर गेट से निकलने के लिये कलेक्ट्रेट का रूख करते हैं तभी लपक कर दो पुलिस वाले आते हैं, तब तक बाबा नाती दरवाजा पार कर लेते हैं ओर दरवाजे से निकली सीटी की आवाज सुन कर फूले नहीं समाते । अब पुलिस वाले उन दोनों को ऊपर से नीचे तक मेटल डिटेक्टर लगा कर चेक करते हैं, दोनों जने भारी ग्लेड यानि खुश हो जाते हैं । मगर पुलिस वाले कहते हैं कि ये साथ की थैली और पॉलीथिन झईं धर देओ । फिर भीतर जईयो । तो बाबा लड़ पड़ता है कहता है कि वह नहीं छोड़ेगा सामान । तब पुलिस वाला कहता है कि तो वह भी नहीं जाने देगा भीतर ।
अभी पुलिस वालों से दोनों की जद्दोजहद चल ही रही थी कि तब तक नेताओं के हुजूम आ उमड़ते हैं, और जिन्दाबाद जिन्दाबाद, जीतेगा भई जीतेगा, के नारे लगने लगते हैं, बाबा अपने नाती से कहता है कि चल रे जा नेता के संग चलेंगें । देंखें अब जे पुलिस वाले कैसे रोकेंगे । और बाबा नाती दोनो लोग नेताओं के साथ भीतर कलेक्ट्रेट में घुस जाते हैं और भीड़ के संग जिन्दाबाद और जीतेगा के नारे लगाने लगते हैं ।
कचहरी के भीतर का सारा नजारा देख कर नाती के मन में भी अंगड़ाईयां आने लगतीं हैं, वह बाबा से बोला बाबा नेतान के तो बड़े भारी जलजले हैं, बाबा हौंऊं (मैं भी) नेता बनेगों । होऊं पर्चा भरेंगों ।
बाबा कहता है, बात तो सही है, कम ते कम एक नेता तो घर में होनोई चहियें, नहीं तो आज के जमाने में कोऊ ना पूछत । चलि तूई बनजा नेता, चलि भरदे पर्च्चा । चलि भीतर दूकान पे पूछि लेऊ पर्च्चा का मोल भरो जागो ।
बाबा नाती भीतर पहुंचे, रिटर्निंग आफिसर से मिले और बोले काय सेठ जी झां पर्च्चा भरे जांगे का । रिटर्निंग आफिसर बोला किस विधानसभा का पर्चा भरना है । बाबा अपनी चतुराई दिखाते बोला कि सिगते सस्ती कौनसी है तई में भरेंगे ।
रिटर्निंग आफिसर जैसे कुछ कुछ समझ गया बोला बाबा झां तो सिग एकई भाव हैं चाहें तौनसी में भर देओ । हॉं हरिजन होओ तो आधे पैसा लगेंगें नईं तो पॉंच हजार लगेंगे ।
बाबा बोला कि हरिजन तो हम ना हतई पर कछू कम कर ले । पैसा तो तू जादा बताय रहो है ।
रिटर्निंग आफिसर भी दो दिन से मक्खी मार रहा था, उसकी विधानसभा से दो दिन बीतने के बाद भी कोई फार्म दाखिल नहीं हुआ था सो पका बैठा था । बोला बाबा ये सरकारी दूकान है, एक बोलिया वाली, यहॉं मोलभाव नहीं चलता । बाबा से जादा चतुर नाती था वह बोला अये सेठ हमनि का ऐंनई उल्लू समझ रहो हैं, हम टी.वी. पे देखकें आयें हैं, जागो ग्राहक जागो में हमें बताया दई है कि मोलभाव करो और दाम घटवाओ । सो सही सही बताय दे कितेक पैसा लेगो, फायनल रेट बोल दे ताते हमऊं फारम भर दें । हमनि वैसे कोऊ जरूरत नानें परि हमाय झां कोऊ नेता नानें सो नेता बनिवे आये हैं । सस्ते में बनाया रहो होय तो बता, नहीं तो कोऊ और दूकान तलाशेंगें ।
रिटर्निंग आफिसर का आफिसरी खून उबाल लेने लगा और बोला बाबा रसीत कटाओगे तो टैक्स लगेंगे सो पैसा जादा ही लगेंगे पर रसीत नहीं कटाऊ तो काम सस्ते में यानि चार हजार में हो सकता है । पर अखबार में नाम नहीं छपेगो ।
नाती इस पर उखड़ गया और बोला रसीत नहीं कटे तो कोऊ बात नानें पर अखबार में नाम नहीं कढ़ेगो तो हम नानें राजी । अखबार में तो नाम जरूरी है, हम सिग गाम में पढ़वावेंगें । नारे लगवावेंगें जिन्दाबाद और जीतेगा करवावेंगे । अखबार वाई रेट बता ।
हुआ चेंट चपाट के बाद ये कि, पूरे पॉंच हजार की रसीद कट गयी और नाती को फार्म मिल गया । फार्म मिलने के बाद नाती बाहर आकर वकीलों से मिला और एक वकील से बोला, काय वकीन साब जे फार्म भरनो है नेतागिरी को, जाय भरवायदेओगे का । वकील साहब ने कहा भर जायेगा पॉंच सौ लगेंगें । बाबा बोला ऐरेओ जे बताऊ का झां सिग के सिग काटिबे ही बैठे हो, ऐंसे नेता बने तो है गई सियाराम । हमनि तो सुनी कि नेता कभऊं अपनो पैसा खच्च करके कोऊं काम ना करतुई और झां खुदईखुद डड़बे चिपटे हैं ।
वकील समझ गया के अनाड़ी पंछी हाथ लगा है, उसने अपनी मार्केटिंग जमाते हुये कहा कि का नये नये आये हो का । तबई ऐसी बातें कर रहे हो, जाओ दिल्ली, भोपाल चले जाओ और जायके देखो कि वकीलों के रेट क्या चल रहे हैं पॉंच दस हजार से नीचे तो कोई वकील अपनी कुर्सी पे बैठने भी नहीं देता, हम तो मुरैने में बरबाद हे रहे हैं । नहीं तो हमऊं आज कछू होते । नेता बनि जाओगे तो जो कमाई करोगे वाय का हमें दे देओगे का । बाबा ने इतना सुन के मूंछ पर ताव जमाया और बोला ठीक है वकील साब दये पूरे तीन सौ दये, अब जादा रेट फेट मत करो, मोड़ा नेता बनें चाहिये रहो हैं, जाय नेता बन जावन देओ ।
वकील ने सटासट फटाफट फार्म भरवा दिया । दस प्रस्तावक भी ला दिये । और शुरू हो गया नाती से नेता बनने का सफर ।
चम्बल के बागीयों पर दुनियां तोहमत लादती है, लेकिन अब क्या हो जब सारा मध्यप्रदेश ही बागी हो उठा है हर पार्टी में बागी नेता सिर उठा रहा है । दागी से बागी बने इन नेताओं का दुख ये है कि पर्चे की लास्ट डेट तक इन्हें पता ही नहीं लग पाया कि वे उन्हें टिकिट नहीं मिल रहा । वरना किसी और पर सवार हो लेते ।
अब डेट निकलने के बाद उन्हें उम्मीद है कि शायद डेट बढ़ जाये । इस देश में बड़ी बड़ी चीजों की डेट बढ़ जातीं हैं, काश उनके फाम भरने की भी डेट बढ़ जाये ।