सोमवार, 28 जनवरी 2008

बदलते जीवन मूल्यों के बीच आदर्श व संवेदनाओं का हुआ प्रखर चित्रण

बदलते जीवन मूल्यों के बीच आदर्श व संवेदनाओं का हुआ प्रखर चित्रण

भारत पर्व पर '' बिन बाती के दीप'' का मंचन 

 

मुरैना 27 जनवरी 2008// जीवन मूल्य बदल रहे है । अवसरवादिता व स्वार्थ ने नये रूप धारण कर लिये हैं । मगर मानवीय संवेदना, सम्बन्धों की परिभाषा, कमजोरियों से आदर्श तक की यात्रा का जीवत दस्तावेज बन गया माुरैना में मंचित ''बिन बाती के दीप ''   मौका था भारत पर्व का ।

1857 के मुक्ति संग्राम के डेढ़ सौ वर्ष और स्वाधीनता की 60 वीं वर्षगांठ पूर्ण होने के अवसर पर 26 जनवरी गणतंत्र दिवस को '' भारत पर्व'' के रूप में मनाया गया । देश में अपनी तरह के इस पहले आयोजन के अवसर मुरैना के सामुदायिक भवन में आर्टिस्ट कम्बाइन ग्वालियर के कलाकारों द्वारा सुविख्यात नाटककार डा.शंकर शेष के नाटक '' बिन बाती के दीप'' का मंचन किया गया ।

       स्वराज संस्थान, संस्कृति विभाग द्वारा जनसंपर्क संचालनालय और जिला प्रशासन के सहयोग से आयोजित भारत पर्व मुरैना के कला रसिकों को भाव-विभोर कर देने वाला दिन रहा । पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री श्री रूस्तम सिंह के मुख्य आतिथ्य में आयोजित इस सांस्कृतिक संध्या पर कलेक्टर श्री आकाश त्रिपाठी, भाजपा जिलाध्यक्ष श्री नागेन्द्र तिवारी, जिला पंचायत सदस्य श्री हमीरसिंह पटेल तथा विभिन्न विभागों के अधिकारी और बड़ी संख्या में प्रवुध्द जन उपस्थित थे । अतिथियों का स्वागत मुख्य कार्यपालन अधिकारी जिला पंचायत श्री अभय वर्मा और सहायक संचालक जनसंपर्क श्री ओ.पी. श्रीवास्तव ने किया । सभी की उपस्थिति के प्रति आभार सहायक परियोजना अधिकारी जिला पंचायत श्री सुनील कुलश्रेष्ट ने व्यक्त किया ।

       श्री बसंत पराजपें द्वारा निर्देशित नाटक '' बिन बाती के दीप'' महत्वाकांक्षाओं, त्याग और समर्पण के बीच मुखर होते द्वंद्व की कहानी है । एक साधारण कवि शिवराज राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर होने की लालसा में संवेदनशील उपन्यासकार विशाखा से शादी कर लेता है । उपन्यास लेखन के दौरान विशाखा की आंखों की रोशनी चली जाती है । उपन्यास को पढ़कर शिव के मन में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने की लालसा प्रखर हो उठती है और वह इस उपन्यास को अपने नाम से छपवा लेता है। शिव रातोरात देश का सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार बन जाता है । वह लगातार विशाखा को विश्वास दिलाता रहता है तथा उसे अगले उपन्यास लिखने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है । साथ ही उसकी आंखों में गलत दवा डालता रहता है । उसके इस षड़यंत्र में उसकी टायपिस्ट प्रेमिका मंजू भी शामिल रहती है । इसी बीच विशाखा शिव के मित्र आनंद के साथ अपनी आंखों का इलाज कराने चली जाती है । एक दिन शिव को उपन्यास लेखन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा हो जाती है और चारों तरफ से उसे बधाइयां मिलने लगती है तभी विशाखा, आनंद के साथ अपनी आंखों का इलाज करवा के लौटती है शिव और मंजू उसे देखकर स्तब्ध हो जाते है और एक रहस्यमयी वातावरण में नाटक का समापन हो जाता है ।

       मंच पर शिव के रूप में अशोक आनंद और विशाखा के रूप में लावण्या जोशी, आनंद के रूप में गोपाल देशपांडे, मंजू के रूप में सम्पदा डेंगरे और नटवर लाल के रूप में केशव मजूमदार के उत्कृष्ट अभिनय को दर्शकों ने बार-बार तालियाँ बजाकर सराहा । शिव ने अपनी महत्वाकांक्षा और आत्मग्लानि तथा विशाखा ने अपनी उदारता, त्याग, समर्पण और विश्वास के बीच मुखर होते द्वद्व का भावुक संवादों के जरिये कुशल चित्रण किया और दर्शकों को भाव विभोर किया । संवादों के जरिये समाज को सच की राह अपनाने और त्याग व समर्पण के अपने जीवन में उतारने का संदेश देते हुए इस नाटक का सुखद व सार्थक समापन हुआ ।

 

कोई टिप्पणी नहीं :