''पुस्तक चर्चा''
कोहनूर 90 साल तक ग्वालियर के तोमरवंशी राजाओं के पास था
सुभाष चंद्र अरोड़ा
संयुक्त संचालक , जनसंपर्क विभाग, म.प्र. शासन
समय की रेत पर बनते बिगड़ते निशानों का लेखा-जोखा करते रहना हर समय जरूरी होता है । इस लेखे-जोखे के माध्यम से हम अपने अतीत को तो जानते ही हैं, अपने वर्तमान से निकलती भविष्य की राहें भी तय करते हैं और यह आशा करते हैं कि नये अनुभवों का एक विशिष्ट वातायन बनें । -मनोज श्रीवास्तव, आयुक्त,जनसंपर्क ... गोपाल गाथा एवं अंचल की सांस्कृतिक विरासतों, उनकी घ्वनियों को जागृत करती एक कथा है। आशा है आपको यह प्रयास सार्थक लगेगा । -डा. प्रकाश गौड़,अपर प्रंबध संचालक म.प्र.माध्यम |
'गोपाचल गाथा' ग्वालियर महानगर की ईसा पूर्व से वर्तमान तक राजनैतिक-साहित्यिक सफरनामें का दस्तावेज है । सीधी सरल भाषा में पुस्तक के लेखक श्री जगदीश तोमर ने अठारह अध्याय वाली अपनी इस 142 पृष्ठ की पुस्तक में ग्वालियर का गौरवशाली अतीत, इतिहास, स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका, स्थापत्य, मूर्तिकला, संगीत, साहित्य परम्परा, पत्रकारिता, जनमानस में रची बसी कथाएं, ग्वालियर का सर्वधर्म समभाव, इतिहास पुरूष, ग्वालियर के गौरव, संग्रहालय और भूगोल को बखूबी प्रस्तुत किया है, मानो गागर में सागर भर दिया हो । पुस्तक के लेखक प्रख्यात साहित्यकार श्री जगदीश तोमर 'इंगित' के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में प्रेमचंद सृजनपीठ के निदेशक हैं । दरअसल वे ग्वालियर की ही माटी के सपूत हैं व उनके इस लेखन में भी माटी की सुगंध पूरी शिद्दत से बरकरार है । पुस्तक में स्वयं लेखक ने लिखा है कि-- '' गोपाचल गाथा '' में राजनैतिक, सांस्कृतिक तथ्यों को सुरक्षित बनाये रखकर , अनेक जनश्रुतियों को समेटने का यत्किचित प्रयास हुआ है । इस कारण यह 'गाथा' जटिलता ,शुष्कता से प्राय: मुक्त रही है और उसमें अनेक स्थानों पर कथा की मिठास सहज ही घुल मिल गई है ।
पुस्तक का नाम - गोपाचल गाथा लेखक- जगदीश तोमर मूल्य - 450/- रूपये प्रकाशक - जनसंपर्क विभाग मप्र |
'' सचमुच लेखक ने अपनी इस सारगर्भित पुस्तक में अंग्रेज पत्रकार एवं लेखक जेरी पिन्टो के व्हेरी स्पेशल ग्वालियर, मुगल सम्राट बाबर के हिन्दुस्तान के किलों का मोती 'ग्वालियर दुर्ग, साहित्य एवं संगीत के क्षेत्र में प्रतिभाओं को तराश कर तैयार करने वाले कोहनूर हीरे का मालिक तोमर राजवंश, जनमानस में रची बसी मृगनयनी और गन्ना बेगम, देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का साक्षी और हिस्सेदार ग्वालियर, ग्वालियर की पत्रकारिता का इतिहास और ग्वालियर के इतिहास पुरूष राजा मानसिंह तोमर, श्रीमंत महादजी सिंधिया से लेकर कवि प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तक सभी का शब्द चित्रात्मक शैली में पूरा खाका ही उतार दिया है , जिसे हर पाठक तन्मय होकर लगातार पढ़ता जावेगा । खासकर वह जो ग्वालियर को जानता है या फिर जानना चाहता है । लेखक ने शहर के गली और चौराहे भी अपनी कलम से नापते हुये चितेरा ओली (जहां बसते थे कलाकार) नगर में स्थापित अश्वारोही प्रतिमाएं और आदमकद प्रतिमाओं का लेखा जोखा भी पुस्तक में प्रस्तुत किया है ।
यहां पुस्तक से कुछ अंशो को उध्दृत किया जा रहा है जो 'गोपाचल गाथा' से पाठकों को पूरी खूबसूरती से परिचित कराते हुये ग्वालियर के गौरवशाली कल और आज से जोड़ देगा।
.........ग्वालियर किले का निर्माण तो बहुत बाद की बात है । किन्तु वह जिस पर्वत पर स्थित है उसका नाम गोपाचल या गोपागिरी है । इसके इस नाम से गोप-गोपिकाओं का सहज स्मरण हो आता है । गोपाचल से लगभग 30-32 किलोमीटर दूर उत्तरपूर्व की ओर एक कस्बा है-गोहद । इस नाम से यह ज्ञात होता है कि बृज भूमि की गायें संभवत: इस कस्बे तक चरने आती थी । यह बृज की गायों के आने की हद या अंतिम सीमा थी । ग्वालियर नाम से भी ग्वालों का बरबस स्मरण हो आता है । वस्तुत: यह सभी नाम - गोपाचल, गोहद और ग्वालियर इस क्षेत्र को बृजभूमि से जोड़ते हैं । यह तथ्य पुराग्रन्थों में भी प्रमाणित होते हैं । (पृ.स.10)
.........बस उस दिन से सूरज सेन ' राजा सूरज पाल ' हो गये और उन्होंने उस क्षेत्र में 'गोपाचल' पर एक किले का निर्माण प्रारंभ कर दिया । अब चूंकि जोगी महाराज का नाम ' ग्वाल्प' था इसलिये कालान्तर में गोपाचल के आस-पास जो नगर बसा वह सहज ही ग्वालियर कहलाया । यह बात 27 ई. की बताई जाती है। उस वर्ष से ग्वालियर में पालवंश का राज्य आरंभ हुआ । कहते हैं कि वह पाल राजा कच्छप या कुशवाह क्षत्रिय थे । उस वंश के 84 राजाओं ने 989 वर्ष तक ग्वालियर पर निर्बाध राज्य किया । (पृ.स. 19)
........किन्तु भारत के उत्तर पश्चिम से आने वाले आक्रान्ताओं ने जब जब दिल्ली पर अधिकार किया, तब-तब ग्वालियर को भी उन्होंने लूटा-खसोटा एवं विध्वंस का निशाना बनाया । किन्तु ग्वालियर था कि मिट-मिटकर भी विकास एवं वैभव के नये-नये सोपान चढ़ता गया । वह अनेक राजवंशो की राजधानी बना। इसके साथ संगीत, साहित्य और ललित कलाओं के समुन्नयन के लिये सुविख्यात भी हुआ । (पृ.स. 19-20)
........सातवीं-आठवीं शताब्दी में यहां संस्कृत के महान विद्वान एवं रचनाकार हुये । उनका नाम भवभूति था । उनके प्रेम प्रधान ' मालती माधव' में जिसमें देश काल का चित्रण है उससे इस क्षेत्र के भूगोल एवं प्रकृति का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है । उसका स्वर्णिम अतीत अब भग्नप्राय है। यहां अतीतकाल में निर्मित खुले रंगमंच के अवशेष, संस्कृत नाटकों के संतुलित मंचन की कथा कहते प्रतीत होते हैं । (पृ.स. 12)
........''कोहनूर दुनिया का सबसे कीमती हीरा है । कभी उसका वजन साढ़े तीन तोला था। किन्तु अब वह इंगलैंड में है और उसके दो टुकड़े हो चुके हैं ।'' उसकी कहानी भारत वर्ष से आरंभ होती है । वह ग्वालियर के तोमरवंशी राजाओं के पास लगभग 90 वर्ष रहा । '' (पृ.स. 96)
तिनके मानसिंघ भये भानि । ता सम भयौ न राज आनि ॥ (पृ 104)
........महाराजा मानसिंह तोमर 1486 में सिंहासन रूढ़ हुये । उनके पूर्व, उनके पूर्वज सात महाराजाओं ने ग्वालियर को पर्याप्त समृध्द और वैभवपूर्ण बना दिया था । यह राजवंश कोहनूर हीरे का स्वामी था । यह महामणि कितना कीमती था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके मूल्य से सारे संसार की आबादी को ढाई दिन तक भोजन कराया जा सकता था । वह हीरा महाराजा मानसिंह के प्रपितामह महाराज डूगेंन्द्र सिंह ने 1437 ई. में मालवा के सुल्तान होशंगशाह खिलजी से प्राप्त किया था । (पृ.स. 104)
........' उस लड़की का नाम था - मृगनयनी । गांव के लोग उसे निन्नी कहते थे । -- महाराज मानसिंह तो मृगनयनी में बल, वीरता और अनिद्य सौंदर्य का अनूठा संगम देखकर विस्मय विमुग्ध हो गये ।'' (पृ.स. 85)
........संगीत, साहित्य एवं स्थापत्य में महाराजा मानसिंह का योगदान वस्तुत: अभूतपूर्व रहा है। उनके द्वारा रचित'मानकुतूहल' संगीत सहित्य की अमूल्य निधि है। मुगल बादशाह औरंगजेब के समय कश्मीर का सूबेदार रहा फकीरूल्ला तो उक्त संगीत ग्रन्थ से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इसका फारसी में अनुवाद किया और उसके माध्यम से 'मानकुतूहल' ईरान आदि देशों में पहुंचा तथा वहां के संगीताचार्यों में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ । (पृ.स. 108)
........'' गुन्नी सिंह उर्फ गन्ना बेगम का नाम गन्ना बेगम इसलिये था क्यों कि उसकी आवाज में गन्ने की मिठास थी ।'' (पृ.स. 87 )
........महादजी स्वयं कवि थे । उन्होंने जाना कि गन्ना भी उच्चकोटि की शायरा और मधुर गायिका है । गन्ना ने महादजी सिंधिया के अनेक पदों को अपना स्वर दिया । उसके पास एक स्वर्णजड़ित तम्बूरा भी था । जब वह उसे बजाती और कोई गजल या महादजी द्वारा लिखित कोई पद गाती तो वातावरण रससिक्त हो जाता । महादजी मंत्रमुग्ध हो जाते । इस प्रकार गन्ना बेगम के जीवन में एक बार फिर सरसता प्रकट हुई किन्तु वह शायद अल्पकाल के लिये ही थी। (पृ.स. 91)
........कुछ तो हिन्दू संस्कार और कुछ राने खां की सेवा । शायद इन दोनों कारणों से महादजी भी धार्मिक उदारता के प्रेमी और पक्षधर बन गये । वह कृष्ण भक्त थे । किन्तु धार्मिक उदारता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुये उन्होंने श्रीकृष्ण का तकिया और गद्दा हरे रंग का रखा। उनके बाद सिंधिया नरेशों ने सूफी संतों सहित सभी मतपथों का समादर किया । 1886 से 1925 तक महाराजा रहे श्रीमंत माधवराव सिंधिया (माधौ महाराज) ने ग्वालियर में ताजियों के राजकीय सम्मान की प्रथा डाली। वह मुहर्रम के दिन हरे रंग के कपड़े पहनते तथा गोटे की माला लेकर फकीरी लेते थे । इतना ही नहीं वह सरकारी ताजिये को कन्धा देते और जोर से नारा लगाते ' बोल फकीरी-या इमाम।' (पृ.स. 101)
........उन दिनों ग्वालियर एक देशी रियासत था । इसलिये वहां बीसवीं सदी के आरंभ-आरंभ तक कोई राजनीतिक सक्रियता नहीं थी । किन्तु धीरे-धीरे, देश के अन्य प्रदेशों जहां सीधे-सीधे अंग्रेजों का ही शासन था- की खबरें भी रियासत में पहुंचने लगी । लोकमान्य तिलक के पत्र ' मराठा' तथा 'केसरी' भी रियासत में पहुंचे । उससे रियासत के पढ़े लिखे लोगों में एक नई सुगबुगाहट शुरू हुई और एक नये उत्साह के साथ, श्री श्यामलाल पांडवीय ने एक साहित्यिक मासिक 'गल्प पत्रिका' सन् 1918 में आरंभ की । (पृ.स. 78)
.......... उस समय 'गल्प पत्रिका' का कांग्रेस अधिवेशन विशेषांक प्रकाशित हुआ । उसे सिंधिया दरबार ने एकदम नापसंद किया । या यूं कहें कि उसने अंग्रेज रेजीडेंट के संकेत पर 'गल्प पत्रिका' के सम्पादक श्री पांडवीय के प्रति सख्ती बरतने का निश्चय किया । किन्तु उन दिनों ग्वालियर रियासत में पत्र-पत्रिकाओं के लिये कोई कानून ही नहीं था । इसलिये जल्दी-जल्दी एक कानून बना और उसके अन्तर्गत सम्पादक के विरूध्द कार्यवाही हुई । ' गल्प पत्रिका' की विवाद्य प्रतियां जब्त कर ली गई और फिर पत्रिका बंद कर दी गई । नये नियम के अनुसार, रियासत दरबार की अनुमति के बिना न तो कोई छापाखाना खोला जा सकता था और न ही किसी पत्र-पत्रिका का प्रकाशन ही हो सकता था । (पृ.स. 79)
.........इससे पूर्व वह न तो केन्द्र में और न ही प्रदेश में किसी मंत्री पद पर रहे थे । केन्द्रीय मंत्री होने का यह पहला अवसर था । किन्तु इस पद से उनकी सरलता, सादगी और खुलेपन में कोई परिवर्तन नहीं आया । विदेश मंत्री होकर भी वह जब-तब साइकिल पर दिख जाते । वह जब भी ग्वालियर आते सबसे बड़े आत्मीय भाव से मिलते । ग्वालियर मेला उनके लिये सदैव ही आकर्षण का केन्द्र बना रहा । मिठाई और मंगौड़े के प्रेमी होने के कारण वे मिष्ठान और नमकीन की उन दुकानों पर सहज ही जाते रहे, जहां वे पूर्व में बल्कि यूं कहें छात्र जीवन से जाते रहे थे । उनकी इस सहजता और प्रेम से दुकानदार गद्-गद् हो जाते और वे अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते । माननीय अटल जी आज भी इस सिलसिले को चलाये हुये हैं । (पृ.स. 128)
पुस्तक में और भी बहुत कुछ है मसलन नल-दमयंती का नरवर, महाभारत कालीन कुतवार, रामायण कालीन शनि मंदिर, 1232 में हुआ प्रथम जौहर, मानमंदिर, गूजरी महल, मौहम्मद गौस का मकबरा, तानसेन की मजार, सिंधिया स्कूल और अन्य सिंधिया कालीन इमारतें, जय विलास , मोतीमहल सहित भवनो एवं छत्रियों का वृतान्त । ग्वालियर के प्रधानमंत्री दादा खासगी वाले का अंग्रेजों की जेल में जाना तथा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में की गई कुर्बानियां, देश की आजादी के साथ बदलता ग्वालियर का परिदृश्य आदि आदि। लेखक ने व्यापक दृष्टि, कलाबोध एवं भाषा की जिस सरलता के साथ ग्वालियर को पूरी समग्रता से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, उसके लिये वे बधाई के पात्र हैं । पुस्तक का प्रकाशन जनसम्पर्क विभाग ने किया है जो विशेष प्रशंसनीय है ।
सुभाष चंद्र अरोड़ा
संयुक्त संचालक , जनसंपर्क,
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