महिला राष्ट्रपति, महिला कलेक्टर और मुल्जिम बनीं अधिकार मांगती महिलायें
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
मुरैना 30 जुलाई । अब इसे विडम्बना कहें या दुर्योग । भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति हो, जिले की पहली महिला कलेक्टर (श्रीमती कैरेलिन खोंग्वार देशमुख इन दिनों मुरैना कलेक्टर हैं ) हो । और हक मांगती महिलाओं को मुल्जिम बना दिया जाये और अपराधीयों के मानिन्द थोकबन्द एफ.आई.आर. दर्ज कर दी जायें ।
पिछले हफते यह वाकया मुरैना शहर की आम व गरीब बस्ती की महिलाओं के साथ गुजरा ।
बात कुछ यूं है कि जहॉं श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह राष्ट्रपति बनीं वहीं मुरैना के गोपालपुरा क्षेत्र जहॉं बिजली की किल्लत थी यानि लगभग एक महीने से ट्रान्सफार्मर फुंका पड़ा था, और शिकायतों पर कोई सुनवाई नहीं हो रही थी । सो महिलाओं की टोली ने बिजलीघर पर जाकर शिकायत शिकवा शुरू किया,धरना प्रदर्शन किया और बन गईं मुल्जिम ।
पिछले कुछ सालों से बिजलीघर का आलम ये है कि कोई शिकायत फरियाद या ज्ञापन लेकर जाये तो अव्वल तो उसकी पावती ही नहीं दी जायेगी और यदि आपने फयूज ऑफ कॉल रजिस्टर मांगने की जुर्रत की तो आपकी खैर नहीं, और यदि आपने सामूहिक ज्ञापन देने या चेंटने की जुर्रत की तो समझिये । कि आप इस देश के सबसे बड़े अपराधी हैं । यानि आपके खिलाफ बिजली वाले तुरन्त एक एफ.आई.आर. पुलिस में लिखा देंगें जिसका खास आपराध मजमून –शासकीय कार्य में बाधा, गालीगलौज, और मारपीट होगा, इसके साथ ही एक और खास टैक्नॉलॉजी है कि एफ.आई.आर. किसी हरिजन कर्मचारी या हरिजन अधिकारी के नाम से भेजी जायेगी जिससे हरिजन एक्ट भी लग सके, पिछले चार सालों सें बिजलीघर के इस नये नुस्खे से इतना जरूर हुआ है कि लोगों ने बिजली मॉंगना और बिजली के आन्दोलन बन्द कर दिये हैं । मुरैना जिला की कोतवालीयों में ऐसे बिजली मामलों की भरमार है ।
पिछले हफते मुरैना में महिलाओं के विरूद्ध थोकबन्द दर्ज की गयी एफ.आई.आर. ने जहॉं भारत के अन्तर्मन को झकझोर कर लोकतंत्र की चूलें हिला दीं हैं । वहीं गरीब हक मांगते किसानों पर लठठ बरसाना, उनके विरूद्ध हक मांगने को आपराध में तब्दील करना, हक मांगने पर महिलाओं को अपराधी बना देना, मुझे लगता है इससे तो अंग्रेजी राज बेहतर था और इस देश को स्वतंत्रता न मिली होती तो अच्छा था ।
आन्दोलन और अहिंसात्मक तरीके से शान्तिपूर्ण प्रदर्शन, असहयोग, और प्रतीकात्मक विरोध, अधिकारों की मांग करना आदि इस देश को महात्मा गांधी द्वारा सिखाये गये फार्मूले हैं ।
गांधी के पथ पर चलने वाले लोग तब अँग्रेजी हुकूमत के जलजले के शिकार होते थे और अब अपनी ही सरकार और अपनी ही पुलिस के । हालांकि वर्तमान में मुरैना का पुलिस महकमा विशेषकर शहर मुरैना और ग्रामीण मुरैना इन दिनों कुछ ठीकठाक है और सन 2001 और 2002 की तरह लॅबे समय बाद अच्छे अफसरों की यूनिट काम कर रही है । उल्लेखनीय है 2001-2002 में डॉ. रमन सिंह जो कि उस समय यहॉं एडीशनल एस.पी. थे और अजीत केसरी मुरैना के कलेक्टर थे, मेरी नजर में एक गजब की अच्छी यूनिट उस समय यहॉं बन पड़ी थी, हालांकि उस समय एस.पी. ठीक नहीं था, और डॉ.रमन सिंह जिस पर लोग बहुत विश्वास करते थे और उनकी गजब की ईमानदारी और कर्तव्य परायणता से लोगों का विश्वास पुलिस पर जम गया था, ऐसा ही लगभग कलेक्टर अजीत केसरी के बारे में था । यद्यपि एडीशनल एस.पी. ज्यादा कुछ स्वतंत्र कार्य नहीं कर पाता है लेकिन फिर भी वह जो कर सकते थे वह उन्होंने किया और लोगों के दिल पर पुलिस का सही अर्थ अंकित किया । मगर तुर्रा ये कि वे यहॉं से चले गये और पुलिस फिर बदनाम हो गयी ।
फिर लम्बे समय बाद रवि गुप्ता जरूर फिर अपनी छाप बना पाये लेकिन डकैत समस्या या यूं कहिये कि नेताओं के लिये सहज व सहूलियते वाला न होने से उन्हें नेताओं का कोपभाजन हो कर जाना पड़ा । फिर योगेश चौधरी डकैत समस्या या बढ़ते अपराधों के नियंत्रण में असफलता का दाग लेकर यहॉं से गये हालांकि उनकी कार्यप्रणाली का एक भाग कुछ ठीक था किन्तु वे यहॉं के लोगों में अपने पराये का अन्तर नहीं कर पाये और भेद नीति में असफल हो कर अपने जौहर नहीं दिखा पाये ।
अब जो यूनिट काम कर रही है, उसमें कलेक्टर श्रीमती कैरेलिन खोंग्वार देशमुख की आजकल ठीकठाक छवि है उनकी कार्यप्रणाली भी लगभग दुरूस्त ही जान पड़ती है, उनसे मिलने या किसी काम का मौका तो नहीं पड़ा लेकिन ओवरव्यू अभी तक ठीक है, वहीं मुरैना एस.पी.डॉ. हरी सिंह यादव हनुमान भक्त और उनकी यूनिट सी.एस.पी. जयवीर सिंह भदौरिया, टी.आई. के.डी.सोनकिया, डी.एस. परिहार, सी.एस.पी. राजेश मिश्रा की जुगलबन्दी बड़ी कमाल की है, मुझे न विश्वास था न ऐसी उम्मीद फिर भी गजब का काम कर दिखाया है, हॉं एक शिकायत जरूर अक्सर आती है कि थानों में अभी भी कायमीयां नहीं होती, फरियादी आज भी बेइज्जती और अनसुनेपन के शिकार हैं ।
हॉं तो मुख्य बात ये है कि एक बढि़या यूनिट और महिला राष्ट्रपति एवं महिला कलेक्टर के जमाने में महिलाओं के खिलाफ एफ.आई.आर. ये बात कुछ गले उतर नहीं पा रही ।
वैसे भी मध्यक्षेत्र विद्युत वितरण कम्पनी एक इनकार्पोरेटेड कम्पनी (कम्पनी अधिनियम 1956) है न कि शासन का विभाग । फिर शासकीय कार्य में बाधा का मामला कैसे दर्ज हो गया, कैसे लोक अभियोजक ने इसे अदालत में जाने दिया और कैसे अदालत ने इसे प्रोसीड कर दिया, कमाल की बात है । मैंने कई मामले मुरैना जिला की कोतवालीयों में ऐसे देखे हैं तहॉं फरियादी या तो कोई निजी फर्म या संस्था या कम्पनी है यानि जैसे बैंक या सहकारी समिति और इन मामलों में बाकायदा लोकसेवक की तरह निजी मामलों को दर्ज किया गया और शासकीय कार्य में बाधा पहले ही झटके में दर्ज की गयी, न केवल दर्ज की गयी बल्कि उस पर चालान यानि द.प्र.सं.की धारा 173 में अंतिम रिपोर्ट भी इसी प्रकार प्रस्तुत हुयी, मामले अदालत में सुने भी गये, और फैसले भी हुये मगर यह जिक्र तक नहीं हुआ कि शासकीय कार्य में बाधा तब बनती जब किसी सरकारी काम में बाधा होती । यानि किसी सरकारी काम का जिक्र तक नहीं आया । अदालत ने भी इन मामलों पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की, और कईयों को सजायें या जुर्माने ठोक दिये ।
हालांकि पुलिस और अदालत में अभी काफी कुछ गड़बड़ है, मगर अफसोस यह है कि उस वक्त वकील क्या कर रहे होते हैं, बुनियादी खामियों को या तो वे अदालत में कहते नहीं या फिर उन्हें अदालत सुनती नहीं, फिर भला जबरदस्ती कैसे कानून और पुलिस पर लोग यकीन करें । ऐसे चिचित्र अन्यायों, विरोधाभासों और विडम्बनाओं की एक बहुत बड़ी फेहरिस्त मेरे पास है जहॉं पुलिस और अदालतें ही कानून से परे हो गयीं हैं ।
बात लगभग एक साल पुरानी है, एक जज ने मुरैना की एक अदालत में फरियादी या उसके वकील से यह तक नहीं पूछा कि खेत की जमीन को कालोनी के रूप में कैसे पिछले बीस साल से बेच रहे हो, कैसे प्लाटिंग कर रहे हो, क्या नगरपालिका या ग्राम पंचायत में इसे कालोनी के रूप में अधिसूचित कर दिया है या नहीं और उस फर्जी कालोनी को यानि उसके फरियादी पक्ष को सी.पी.सी. की धारा 39(3) का स्टे आनन फानन में कालोनी मान कर एक झटके में जारी कर दिया, ऊपर से तुर्रा ये कि आवेदन जिस जगह की स्टे के लिये लगाया गया, उसमें नक्शा दूसरी जगह का था और फरियादी के पास रजिस्ट्री दूसरी जगह की, मजे की बात ये कि दोनों नक्शे उसमें लगाये गये और दोनों अलग अलग । यह घटना प्रकरण क्रमांक 23/06/ इ.दी. न्यायालय प्रभाकान्त शुक्ला की है ।
खैर एक और महिला हैं किरण बेदी वे भी खूब चिल्लाचोट कर रहीं हैं, वहॉं भी आलम यही है राष्ट्रपति महिला और मुख्यमंत्री भी महिला और महिला बेदी पर हो गया अन्याय, एक महिला बेदी को मिल गया न्याय और एक के साथ हो गया अन्याय । वैसे उनके बारे में आज वायस आफ अमेरिका ने तगड़ा समाचार दिया है नीचे यह उसे यथावत दे रहे हैं । -
भारत सरकार पर लैंगिक भेदभाव का आरोप
वायस औफ़ अमेरिका ▪ Hindi
जब भारत की पहली महिला राष्ट्रपति ने अपना पद संभाला तो कहा गया कि इससे देश की लाखों महिलाओं का मनोबल ऊंचा उठा है । लेकिन इसके ठीक बाद एक वरिष्ठ महिला पुलिस अधिकारी को उच्च पद पर नियुक्ति से वंचित कर दिया गया । इस घटना की वजह से देश में इस बात पर बहस छिड़ गई है कि देश में अभी भी लैंगिक भेदभाव बरकरार है । नई दिल्ली से अंजना पसरीचा की रिपोर्ट-
कई लोगों के लिए हाल में भारत के राष्ट्रपति पद पर 72-वर्षीय प्रतिभा पाटिल का चुना जाना देश में महिलाओं के सशक्तिकरण का प्रतीक बन गया है । वह ऐसे देश की राष्ट्रपति बनी है, जहां अभी भी व्यापक पैमाने पर भेदभाव बना हुआ है ।
लेकिन ठीक जिस दिन सुश्री पाटिल को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई गई, उसी दिन सरकार ने दिल्ली पुलिस के प्रमुख के पद पर नियुक्ति में एक महिला पुलिस अधिकारी किरण बेदी की अनदेखी कर दी और उनकी जगह उनके कनिष्ठ सहयोगी को उस पर बैठा दिया । सरकार ने इतना ही कहा है कि यह एक प्रशासनिक फैसला है ।
सरकार के इस कदम से एक विवाद खड़ा हो गया है । हाल के महीनों में यह तीसरी घटना है, जब सरकार के प्रमुख पदों पर पुरुषों को बिठाने के लिए महिलाओं की अनदेखी की गई । प्रमुख नौकरशाह वीणा सिकरी और रेवा नायर को वरिष्ठता के आधार पर क्रमशः विदेश सचिव और कबीना सचिव बनाया जाना चाहिए था, लेकिन उनकी अनदेखी कर दी गई ।
महिला संगठनों ने इस पर भारी ऐतराज जताया है । उनका कहना है कि लैंगिक पूर्वाग्रह की वजह से सरकार में काबिल महिला अधिकारियों की उपेक्षा की जा रही है ।
सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी ने कहा है कि एक महिला को राष्ट्रपति बनाने की जो उपलब्धि मिली थी, वह व्यर्थ हो गई ।
सुश्री कुमारी ने कहा- हमारा मानना है कि राष्ट्रपति पद पर एक महिला की नियुक्ति सोच-समझकर नहीं की गई है । यह सिर्फ राजनीतिक मजबूरी की वजह से की गई । मैं नहीं समझती की सत्ता में बैठे लोग भारत में वास्तव में महिलाओं को सशक्त बनाना चाहते हैं । मैं यह समझ रही हूं कि व्यवस्था अभी भी महिलाओं के लिए जगह छोड़ने को तैयार नहीं है ।
किरण बेदी देश की पहली महिला पुलिस अधिकारी है । कड़ी और स्वतंत्र विचारों वाली होने के कारण उनकी चारों तरफ प्रशंसा हुई है । कई तरह की जिम्मेदारियां उन्हें दी गईं, जहां उन्होंने अपनी छाप छोड़ी । किरण बेदी ने पुलिस प्रमुख के पद से वंचित करने के सरकार के फैसले का विरोध किया है ।
सुश्री बेदी ने कहा कि जो कुछ हुआ है, उससे बहुत ही दुखद संदेश जाता है और हम पहाड़ों से जंग लड़ रहे हैं । व्यवस्था की जीत इसलिए हुई, क्योंकि व्यवस्था में पारदर्शिता नहीं है ।
महिला संगठनों ने सरकार में महिलाओं की बहुत कम भागीदारी का सवाल उठाया है । उनके एक आंकड़े के अनुसार संसद सदस्यों में उनकी संख्या 8 प्रतिशत, नौकरशाही में 15 प्रतिशत और न्यायपालिका में 3 प्रतिशत ही है । ये आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि भारत में अभी भी मर्दों का ही दबदबा है ।
उनका कहना है कि संसद में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीट आरक्षित करने की कोशिशों में सांसदों ने बार-बार अड़ंगा लगाया है, हालांकि देश की दोनों प्रमुख पार्टियां यह कह रही हैं कि वे इसके पक्ष में हैं ।
ऐसा नहीं है कि भारत में महिलाएं बड़े पदों पर आसीन नहीं हुई हैं । इंदिरा गांधी 1966 से 1977 और 1980 से 1984 तक करीब 14 साल तक देश की प्रधानमंत्री थीं । उनकी बहू सेनिया गांधी देश की सत्ताधारी पार्टी, कांग्रेस एवं उसके गठबंधन की मुखिया है । लेकिन आलोचकों का कहना है कि वे इतने बड़े पदों तक इसलिए पहुंची, क्योंकि वे एक शक्तिशाली राजनीतिक खानदान से जुड़ी थीं ।
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