19 दिसम्बर पर विशेष : काकोरी के नायक अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की आत्मकथा
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अमर शहीद रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने यह आत्मकथा दिसम्बर १९२७ में गोरखपुर जेल में लिखी थी । उन्हें १९ दिसम्बर १९२७ को फांसी पर लटकाया गया था । गोरखपुर में अपनी जेल की कोठरी में उन्होने अपनी जीवनी लिखनी शुरू की, जो फांसी के केवल तीन दिन पहले समाप्त हुई। १८ दिसम्बर १९२७ को उनकी माँ अपने एक संगी श्री शिव वर्मा के साथ उनसे मिलने आयीं । बिस्मिल ने अपनी जीवनी की हस्तलिखित पांडुलिपि माँ द्वारा लाये गये खाने के बक्से (टिफिन) में छिपाकर रख दी और इसे शिव वर्मा जी को सौंप दिया। शिव वर्मा जी इसे जेल के बाहर लाने में सफल रहे। बाद में श्री भगवतीचरण वर्मा जी ने इन पन्नों को पुस्तक रूप में छपवाया। पता चलते ही ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया और इसकी प्रतियाँ जब्त कर लीं गयीं। सन १९४७ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कुछ आर्यसमाजी लोगों ने इस जीवनी को पुन: प्रकाशित कराया।
बिस्मिल प्रथम खण्ड
प्रथम खण्ड
आत्म-चरित
तोमरधार में चम्बल नदी के किनारे पर दो ग्राम आबाद हैं, जो ग्वालियर राज्य में बहुत ही प्रसिद्ध हैं, क्योंकि इन ग्रामों के निवासी बड़े उद्दण्ड हैं । वे राज्य की सत्ता की कोई चिन्ता नहीं करते । जमीदारों का यह हाल है कि जिस साल उनके मन में आता है राज्य को भूमि-कर देते हैं और जिस साल उनकी इच्छा नहीं होती, मालगुजारी देने से साफ इन्कार कर जाते हैं । यदि तहसीलदार या कोई और राज्य का अधिकारी आता है तो ये जमींदार बीहड़ में चले जाते हैं और महीनों बीहड़ों में ही पड़े रहते हैं । उनके पशु भी वहीं रहते हैं और भोजनादि भी बीहड़ों में ही होता है । घर पर कोई ऐसा मूल्यवान पदार्थ नहीं छोड़ते जिसे नीलाम करके मालगुजारी वसूल की जा सके । एक जमींदार के सम्बंध में कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई । पहले तो कई साल तक भागे रहे । एक बार धोखे से पकड़ लिये गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें बहुत सताया । कई दिन तक बिना खाना-पानी के बँधा रहने दिया । अन्त में जलाने की धमकी दे, पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी । किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमि-कर देना स्वीकार न किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से ही घाटा न पड़ जायेगा । संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दंडता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है । राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई । इसी प्रकार एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा । उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊँट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए । राज्य को लिखा गया; जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएँ । न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से वे ऊँट वापस किए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा । तब तोपें लौटाईं गईं और ग्राम उड़ाये जाने से बचे । ये लोग अब राज्य-निवासियों को तो अधिक नहीं सताते, किन्तु बहुधा अंग्रेजी राज्य में आकर उपद्रव कर जाते हैं और अमीरों के मकानों पर छापा मारकर रात-ही-रात बीहड़ में दाखिल हो जाते हैं । बीहड़ में पहुँच जाने पर पुलिस या फौज कोई भी उनका बाल बाँका नहीं कर सकती । ये दोनों ग्राम अंग्रेजी राज्य की सीमा से लगभग पन्द्रह मील की दूरी पर चम्बल नदी के तट पर हैं । यहीं के एक प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश में मेरे पितामह श्री नारायणलाल जी का जन्म हुआ था । वह कौटुम्बिक कलह और अपनी भाभी के असहनीय दुर्व्यवहार के कारण मजबूर हो अपनी जन्मभूमि छोड़ इधर-उधर भटकते रहे । अन्त में अपनी धर्मपत्नी और दो पुत्रों के साथ वह शाहजहाँपुर पहुँचे । उनके इन्हीं दो पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र श्री मुरलीधर जी मेरे पिता हैं । उस समय इनकी अवस्था आठ वर्ष और उनके छोटे पुत्र - मेरे चाचा (श्री कल्याणमल) की उम्र छः वर्ष की थी । इस समय यहां दुर्भिक्ष का भयंकर प्रकोप था ।
दुर्दिन
अनेक प्रयत्न करने के पश्चात् शाहाजहाँपुर में एक अत्तार महोदय की दुकान पर श्रीयुत् नारायणलाल जी को तीन रुपये मासिक वेतन की नौकरी मिली । तीन रुपये मासिक में दुर्भिक्ष के समय चार प्राणियों का किस प्रकार निर्वाह हो सकता था ? दादीजी ने बहुत प्रयत्न किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाय, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका । बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ तब आधा बथुआ, चना या कोई दूसरा साग, जो सब से सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा-सा नमक डालकर उसे स्वयं खाती, लड़कों को चना या जौ की रोटी देतीं और इसी प्रकार दादाजी भी समय व्यतीत करते थे । बड़ी कठिनता से आधे पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूँ दबाकर रात काटना कठिन हो जाता । यह तो भोजन की अवस्था थी, वस्त्र तथा रहने के स्थान का किराया कहाँ से आता ? दादाजी ने चाहा कि भले घरों में मजदूरी ही मिल जाए, किन्तु अनजान व्यक्ति का, जिसकी भाषा भी अपने देश की भाषा से न मिलती हो, भले घरों में सहसा कौन विश्वास कर सकता था ? कोई मजदूरी पर अपना अनाज भी पीसने को न देता था ! डर था कि दुर्भिक्ष का समय है, खा लेगी । बहुत प्रयत्न करने के बाद एक-दो महिलाएं अपने घर पर अनाज पिसवाने पर राजी हुईं, किन्तु पुरानी काम करने वालियों को कैसे जवाब दें ? इसी प्रकार अड़चनों के बाद पाँच-सात सेर अनाज पीसने को मिल जाता, जिसकी पिसाई उस समय एक पैसा प्रति पंसेरी थी । बड़े कठिनता से आधे पेट एक समय भोजन करके तीन-चार घण्टों तक पीसकर एक पैसा या डेढ़ पैसा मिलता । फिर घर पर आकर बच्चों के लिए भोजन तैयार करना पड़ता । तो-तीन वर्ष तक यही अवस्था रही । बहुधा दादाजी देश को लौट चलने का विचार प्रकट करते, किन्तु दादीजी का यही उत्तर होता कि जिनके कारण देश छूटा, धन-सामग्री सब नष्ट हुई और ये दिन देखने पड़े अब उन्हीं के पैरों में सिर रखकर दासत्व स्वीकार करने से इसी प्रकार प्राण दे देना कहीं श्रेष्ठ है, ये दिन सदैव न रहेंगे । सब प्रकार के संकट सहे किन्तु दादीजी देश को लौटकर न गई ।
चार-पांच वर्ष में जब कुछ सज्जन परिचित हो गए और जान लिया कि स्त्री भले घर की है, कुसमय पड़ने से दीन-दशा को प्राप्त हुई है, तब बहुत सी महिलाएं विश्वास करने लगीं । दुर्भिक्ष भी दूर हो गया था । कभी-कभी किसी सज्जन के यहाँ से कुछ दान मिल जाता, कोई ब्राह्मण-भोजन करा देता । इसी प्रकार समय व्यतीत होने लगा । कई महानुभावों ने, जिनके कोई सन्तान न थी और धनादि पर्याप्त था, दादाजी को अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये कि वह अपना एक लड़का उन्हें दे दें और जितना धन मांगे उनकी भेंट किया जाय । किन्तु दादीजी आदर्श माता थी, उन्होंने इस प्रकार के प्रलोभनों की किंचित-मात्र भी परवाह न की और अपने बच्चों का किसी-न-किसी प्रकार पालन करती रही ।
मेहनत-मजदूरी तथा ब्राह्मण-वृत्ति द्वारा कुछ धन एकत्र हुआ । कुछ महानुभावों के कहने से पिताजी के किसी पाठशाला में शिक्षा पाने का प्रबन्ध कर दिया गया । श्री दादाजी ने भी कुछ प्रयत्न किया, उनका वेतन भी बढ़ गया और वह सात रुपये मासिक पाने लगे । इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़, पैसे तथा दुअन्नी, चवन्नी इत्यादि बेचने की दुकान की । पाँच-सात आने रोज पैदा होने लगे । जो दुर्दिन आये थे, प्रयत्न तथा साहस से दूर होने लगे । इसका सब श्रेय श्री दादी जी को ही है । जिस साहस तथा धैर्य से उन्होंने काम लिया वह वास्तव में किसी दैवी शक्ति की सहायता ही कही जाएगी । अन्यथा एक अशिक्षित ग्रामीण महिला की क्या सामर्थ्य है कि वह नितान्त अपरिचित स्थान में जाकर मेहनत मजदूरी करके अपना तथा अपने बच्चों का पेट पालन करते हुए उनको शिक्षित बनाये और फिर ऐसी परिस्थितियों में जब कि उसने अभी अपने जीवन में घर से बाहर पैर न रखा हो और जो ऐसे कट्टर देश की रहने वाली हो कि जहाँ पर प्रत्येक हिन्दू प्रथा का पूर्णतया पालन किया जाता हो, जहाँ के निवासी अपनी प्रथाओं की रक्षा के लिए प्राणों की किंचित-मात्र भी चिन्ता न करते हों । किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य की कुलवधू का क्या साहस, जो डेढ़ हाथ का घूंघट निकाले बिना एक घर से दूसरे घर पर चली जाए । शूद्र जाति की वधुओं के लिए भी यही नियम है कि वे रास्ते में बिना घूंघट निकाले न जाएँ । शूद्रों का पहनावा ही अलग है, ताकि उन्हें देखकर ही दूर से पहचान लिया जाए कि यह किसी नीच जाति की स्त्री है । ये प्रथाएँ इतनी प्रचलित हैं कि उन्होंने अत्याचार का रूप धारण कर लिया है । एक समय किसी चमार की वधू, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुल-प्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई । वह पैरों में बिछुवे (नुपूर) पहने हुए थी और सब पहनावा चमारों का पहने थी । जमींदार महोदय की निगाह उसके पैरों पर पड़ी । पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है । जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इस जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियाँ कट गईं । उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुऐं बिछुवा पहनेंगीं तो ऊँची जाति के घर की स्त्रियां क्या पहनेंगीं ? ये लोग नितान्त अशिक्षित तथा मूर्ख हैं किन्तु जाति-अभिमान में चूर रहते हैं । गरीब-से-गरीब अशिक्षित ब्राह्मण या क्षत्रिय, चाहे वह किसी आयु का हो, यदि शूद्र जाति की बस्ती में से गुजरे तो चाहे कितना ही धनी या वृद्ध कोई शूद्र क्यों न हो, उसको उठकर पालागन या जुहार करनी ही पड़ेगी । यदि ऐसा न करे तो उसी समय वह ब्राह्मण या क्षत्रिय उसे जूतों से मार सकता है और सब उस शूद्र का ही दोष बताकर उसका तिरस्कार करेंगे ! यदि किसी कन्या या बहू पर व्यभिचारिणी होने का सन्देह किया जाए तो उसे बिना किसी विचार के मारकर चम्बल में प्रवाहित कर दिया जाता है । इसी प्रकार यदि किसी विधवा पर व्यभिचार या किसी प्रकार आचरण-भ्रष्ठ होने का दोष लगाया जाए तो चाहे वह गर्भवती ही क्यों न हो, उसे तुरन्त ही काटकर चम्बल में पहुंचा दें और किसी को कानों-कान भी खबर न होने दें । वहाँ के मनुष्य भी सदाचारी होते हैं । सबकी बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझते हैं । स्त्रियों की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए प्राण देने में भी सभी नहीं हिचकिचाते । इस प्रकार के देश में विवाहित होकर सब प्रकार की प्रथाओं को देखते हुए भी इतना साहस करना यह दादी जी का ही काम था ।
परमात्मा की दया से दुर्दिन समाप्त हुए । पिताजी कुछ शिक्षा पा गए और एक मकान भी श्री दादाजी ने खरीद लिया । दरवाजे-दरवाजे भटकने वाले कुटुम्ब को शान्तिपूर्वक बैठने का स्थान मिल गया और फिर श्री पिताजी के विवाह करने का विचार हुआ । दादीजी, दादाजी तथा पिताजी के साथ अपने मायके गईं । वहीं पिताजी का विवाह कर दिया । वहाँ दो चार मास रहकर सब लोग वधू की विदा कराके साथ लिवा लाए ।
गार्हस्थ्य जीवन
विवाह हो जाने के पश्चात पिताजी म्युनिसिपैलिटी में पन्द्रह रुपये मासिक वेतन पर नौकर हो गए । उन्होंने कोई बड़ी शिक्षा प्राप्त न की थी । पिताजी को यह नौकरी पसन्द न आई । उन्होंने एक-दो साल के बाद नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र व्यवसाय आरम्भ करने का प्रयत्न किया और कचहरी में सरकारी स्टाम्प बेचने लगे । उनके जीवन का अधिक भाग इसी व्यवसाय में व्यतीत हुआ । साधारण श्रेणी के गृहस्थ बनकर उन्होंने इसी व्यवसाय द्वारा अपनी सन्तानों को शिक्षा दी, अपने कुटुम्ब का पालन किया और अपने मुहल्ले के गणमान्य व्यक्तियों में गिने जाने लगे । वह रुपये का लेन-देन भी करते थे । उन्होंने तीन बैलगाड़ियां भी बनाईं थीं, जो किराये पर चला करतीं थीं । पिताजी को व्यायाम से प्रेम था । उनका शरीर बड़ा सुदृढ़ व सुडौल था । वह नियम पूर्वक अखाड़े में कुश्ती लड़ा करते थे ।
पिताजी के गृह में एक पुत्र उत्पन्न हुआ, किन्तु वह मर गया । उसके एक साल बाद लेखक (श्री रामप्रसाद) ने ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष 11 सम्वत् 1954 विक्रमी को जन्म लिया । बड़े प्रयत्नों से मानता मानकर अनेक गंडे, ताबीज तथा कवचों द्वारा श्री दादाजी ने इस शरीर की रक्षा के लिए प्रयत्न किया । स्यात् बालकों का रोग गृह में प्रवेश कर गया था । अतःएव जन्म लेने के एक या दो मास पश्चात् ही मेरे शरीर की अवस्था भी पहले बालक जैसी होने लगी । किसी ने बताया कि सफेद खरगोश को मेरे शरीर पर घुमाकर जमीन पर छोड़ दिया जाय, यदि बीमारी होगी तो खरगोश तुरन्त मर जायेगा । कहते हैं हुआ भी ऐसा ही । एक सफेद खरगोश मेरे शरीर पर से उतारकर जैसे ही जमीन पर छोड़ा गया, वैसे ही उसने तीन-चार चक्कर काटे और मर गया । मेरे विचार में किसी अंश में यह सम्भव भी है, क्योंकि औषधि तीन प्रकार की होती हैं - (1) दैविक (2) मानुषिक, (3) पैशाचिक । पैशाचिक औषधियों में अनेक प्रकार के पशु या पक्षियों के मांस अथवा रुधिर का व्यवहार होता है, जिनका उपयोग वैद्यक के ग्रन्थों में पाया जाता है । इसमें से एक प्रयोग बड़ा ही कौतुहलोत्पादक तथा आश्चर्यजनक यह है कि जिस बच्चे को जभोखे (सूखा) की बीमारी हो गई हो, यदि उसके सामने चमगादड़ चीरकर लाया जाए तो एक दो मास का बालक चमगादड़ को पकड़कर उसका खून चूस लेगा और बीमारी जाती रहेगी । यह बड़ी उपयोगी औषधि है और एक महात्मा की बतलाई हुई है ।
जब मैं सात वर्ष का हुआ तो पिताजी ने स्वयं ही मुझे हिन्दी अक्षरों का बोध कराया और एक मौलवी साहब के मकतब में उर्दू पढ़ने के लिए भेज दिया । मुझे भली-भांति स्मरण है कि पिताजी अखाड़े में कुश्ती लड़ने जाते थे और अपने से बलिष्ठ तथा शरीर से डेढ़ गुने पट्ठे को पटक देते थे, कुछ दिनों बाद पिताजी का एक बंगाली (श्री चटर्जी) महाशय से प्रेम हो गया । चटर्जी महाशय की अंग्रेजी दवा की दुकान थी । वह बड़े भारी नशेबाज थे । एक समय में आधा छटांक चरस की चिलम उड़ाया करते थे । उन्हीं की संगति में पिताजी ने भी चरस पीना सीख लिया, जिसके कारण उनका शरीर नितान्त नष्ट हो गया । दस वर्ष में ही सम्पूर्ण शरीर सूखकर हड्डियां निकल आईं । चटर्जी महाशय सुरापान भी करने लगे । अतःएव उनका कलेजा बढ़ गया और उसी से उनका शरीरांत हो गया । मेरे बहुत-कुछ समझाने पर पिताजी ने चरस पीने की आदत को छोड़ा, किन्तु बहुत दिनों के बाद ।
मेरे बाद पांच बहनों और तीन भाईयों का जन्म हुआ । दादीजी ने बहुत कहा कि कुल की प्रथा के अनुसार कन्याओं को मार डाला जाए, किन्तु माताजी ने इसका विरोध किया और कन्याओं के प्राणों की रक्षा की । मेरे कुल में यह पहला ही समय था कि कन्याओं का पोषण हुआ । पर इनमें से दो बहनों और दो भाईयों का देहान्त हो गया । शेष एक भाई, जो इस समय (1927 ई०) दस वर्ष का है और तीन बहनें बचीं । माताजी के प्रयत्न से तीनों बहनों को अच्छी शिक्षा दी गई और उनके विवाह बड़ी धूमधाम से किए गए । इसके पूर्व हमारे कुल की कन्याएं किसी को नहीं ब्याही गईं, क्योंकि वे जीवित ही नहीं रखी जातीं थीं ।
दादाजी बड़ी सरल प्रकृति के मनुष्य थे । जब तक वे जीवित रहे, पैसे बेचने का ही व्यवसाय करते रहे । उनको गाय पालने का बहुत बड़ा शौक था । स्वयं ग्वालियर जाकर बड़ी-बड़ी गायें खरीद लाते थे । वहां की गायें काफी दूध देती हैं । अच्छी गाय दस या पन्द्रह सेर दूध देती है । ये गायें बड़ी सीधी भी होती हैं । दूध दोहन करते समय उनकी टांगें बांधने की आवश्यकता नहीं होती और जब जिसका जी चाहे बिना बच्चे के दूध दोहन कर सकता है । बचपन में मैं बहुधा जाकर गाय के थन में मुँह लगाकर दूध पिया करता था । वास्तव में वहां की गायें दर्शनीय होती हैं ।
दादाजी मुझे खूब दूध पिलाया करते थे । उन्हें अट्ठारह गोटी (बघिया बग्घा) खेलने का बड़ा शौक था । सायंकाल के समय नित्य शिव-मन्दिर में जाकर दो घण्टे तक परमात्मा का भजन किया करते थे । उनका लगभग पचपन वर्ष की आयु में स्वर्गारोहण हुआ ।
बाल्यकाल से ही पिताजी मेरी शिक्षा का अधिक ध्यान रखते थे और जरा-सी भूल करने पर बहुत पीटते थे । मुझे अब भी भली-भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे 'उ' लिखना न आया । मैने बहुत प्रयत्न किया । पर जब पिताजी कचहरी चले गए तो मैं भी खेलने चला गया । पिताजी ने कचहरी से आकर मुझ से 'उ' लिखवाया तो मैं लिख न सका । उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था, इस पर उन्होंने मुझे बन्दूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया । भागकर दादीजी के पास चला गया, तब बचा । मैं छोटेपन से ही बहुत उद्दण्ड था । पिताजी के पर्याप्त शासन रखने पर भी बहुत उद्दण्डता करता था । एक समय किसी के बाग में जाकर आड़ू के वृक्षों में से सब आड़ू तोड़ डाले । माली पीछे दौड़ा, किन्तु मैं उनके हाथ न आया । माली ने सब आड़ू पिताजी के सामने ला रखे । उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका । इसी प्रकार खूब पिटता था, किन्तु उद्दण्डता अवश्य करता था । शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया ।
मेरी कुमारावस्था
जब मैं उर्दू का चौथा दर्जा पास करके पाँचवें में आया उस समय मेरी अवस्था लगभग चौदह वर्ष की होगी । इसी बीच मुझे पिताजी के सन्दूक के रुपये-पैसे चुराने की आदत पड़ गई थी । इन पैसों से उपन्यास खरीदकर खूब पढ़ता । पुस्तक-विक्रेता महाशय पिताजी के जान-पहचान के थे । उन्होंने पिताजी से मेरी शिकायत की । अब मेरी कुछ जाँच होने लगी । मैने उन महाशय के यहाँ से किताबें खरीदना ही छोड़ दिया । मुझ में दो-एक खराब आदतें भी पड़ गईं । मैं सिगरेट पीने लगा । कभी-कभी भंग भी जमा लेता था । कुमारावस्था में स्वतन्त्रतापूर्वक पैसे हाथ आ जाने से और उर्दू के प्रेम-रसपूर्ण उपन्यासों तथा गजलों की पुस्तकों ने आचरण पर भी अपना कुप्रभाव दिखाना आरम्भ कर दिया । घुन लगना आरम्भ हुआ ही था कि परमात्मा ने बड़ी सहायता की । मैं एक रोज भंग पीकर पिताजी की संदूकची में से रुपए निकालने गया । नशे की हालत में होश ठीक न रहने के कारण संदूकची खटक गई । माताजी को संदेह हुआ । उन्होंने मुझे पकड़ लिया । चाभी पकड़ी गई । मेरे सन्दूक की तलाशी ली गई, बहुत से रुपये निकले और सारा भेद खुल गया । मेरी किताबों में अनेक उपन्यासादि पाए गए जो उसी समय फाड़ डाले गए ।
परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई नहीं तो दो-चार वर्ष में न दीन का रहता और न दुनियां का । इसके बाद भी मैंने बहुत घातें लगाई, किन्तु पिताजी ने संदूकची का ताला बदल दिया था । मेरी कोई चाल न चल सकी । अब तब कभी मौका मिल जाता तो माताजी के रुपयों पर हाथ फेर देता था । इसी प्रकार की कुटेवों के कारण दो बार उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सका, तब मैंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा प्रकट की । पिताजी मुझे अंग्रेजी पढ़ाना न चाहते थे और किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे, किन्तु माताजी की कृपा से मैं अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया । दूसरे वर्ष जब मैं उर्दू मिडिल की परीक्षा में फेल हुआ उसी समय पड़ौस के देव-मन्दिर में, जिसकी दीवार मेरे मकान से मिली थी, एक पुजारीजी आ गए । वह बड़े ही सच्चरित्र व्यक्ति थे । मैं उनके पास उठने-बैठने लगा ।
मैं मन्दिर में आने-जाने लगा । कुछ पूजा-पाठ भी सीखने लगा । पुजारी जी के उपदेशों का बड़ा उत्तम प्रभाव हुआ । मैं अपना अधिकतर समय स्तुतिपूजन तथा पढ़ने में व्यतीत करने लगा । पुजारीजी मुझे ब्रह्मचर्य पालन का खूब उपदेश देते थे । वे मेरे पथ-प्रदर्शक बने । मैंने एक दूसरे सज्जन की देखा-देखी व्यायाम करना भी आरम्भ कर दिया । अब तो मुझे भक्ति-मार्ग में कुछ आनन्द प्राप्त होने लगा और चार-पाँच महीने में ही व्यायाम भी खूब करने लगा । मेरी सब बुरी आदतें और कुभावनाएँ जाती रहीं । स्कूलों की छुट्टियाँ समाप्त होने पर मैंने मिशन स्कूल में अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में नाम लिखा लिया । इस समय तक मेरी और सब कुटेवें तो छूट गई थीं, किन्तु सिगरेट पीना न छूटता था । मैं सिगरेट बहुत पीता था । एक दिन में पचास-साठ सिगरेट पी डालता था । मुझे बड़ा दुःख होता था कि मैं इस जीवन में सिगरेट पीने की कुटेव को न छोड़ सकूंगा । स्कूल में भरती होने के थोड़े दिनों बाद ही एक सहपाठी श्रीयुत सुशीलचन्द सेन से कुछ विशेष स्नेह हो गया । उन्हीं की दया के कारण मेरा सिगरेट पीना भी छूट गया ।
देव-मन्दिर में स्तुति-पूजा करने की प्रवृत्ति को देखकर श्रीयुत मुंशी इन्द्रजीत जी ने मुझे सन्ध्या करने का उपदेश दिया । मुंशीजी उसी मन्दिर में रहने वाले किसी महाशय के पास आया करते थे । व्यायामादि के कारण मेरा शरीर बड़ा सुगठित हो गया था और रंग निखर आया था । मैंने जानना चाहा कि सन्ध्या क्या वस्तु है । मुंशीजी ने आर्य-समाज सम्बन्धी कुछ उपदेश दिए । इसके बाद मैंने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा । इससे तख्ता ही पलट गया । सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ खोल दिया । मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना आरम्भ कर दिया । मैं कम्बल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल चार बजे से ही शैया-त्याग कर देता । स्नान-सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर व्यायाम करता, परन्तु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं । मैने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया । केवल थोड़ा सा दूध ही रात को पीने लगा । सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्नदोष हो जाता । तब किसी सज्जन के कहने से मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया । केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता । मिर्च-खटाई तो छूता भी न था । इस प्रकार पाँच वर्ष तक बराबर नमक न खाया । नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया । सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे ।
मैं थोड़े दिनों में ही बड़ा कट्टर आर्य-समाजी हो गया । आर्य-समाज के अधिवेशन में जाता-आता । सन्यासी-म्हात्माओं के उपदेशों को बड़ी श्रद्धा से सुनता । जब कोई सन्यासी आर्य-समाज में आता तो उसकी हर प्रकार से सेवा करता, क्योंकि मेरी प्राणायाम सीखने की बड़ी उत्कट इच्छा थी । जिस सन्यासी का नाम सुनता, शहर से तीन-चार मील उसकी सेवा के लिए जाता, फिर वह सन्यासी चाहे जिस मत का अनुयायी होता । जब मैं अंग्रेजी के सातवें दर्जे में था तब सनातनधर्मी पण्डित जगतप्रसाद जी शाहजहाँपुर पधारे उन्होंने आर्य-समाज का खण्डन करना प्रारम्भ किया । आर्य-समाजियों ने भी उनका विरोध किया और पं० अखिलानंदजी को बुलाकर शास्त्रार्थ कराया । शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ । जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ । मेरे कामों को देखकर मुहल्ले वालों ने पिताजी से मेरी शिकायत की । पिताजी ने मुझसे कहा कि आर्य-समाजी हार गए, अब तुम आर्य-समाज से अपना नाम कटा दो । मैंने पिताजी से कहा कि आर्य-समाज के सिद्धान्त सार्वभौम हैं, उन्हें कौन हरा सकता है ? अनेक वाद-विवाद के पश्चात् पिताजी जिद्द पकड़ गए कि आर्य-समाज से त्यागपत्र न देगा तो घर छोड़ दे । मैंने भी विचारा कि पिताजी का क्रोध अधिक बढ़ गया और उन्होंने मुझ पर कोई वस्तु ऐसी दे पटकी कि जिससे बुरा परिणाम हुआ तो अच्छा न होगा । अतएव घर त्याग देना ही उचित है । मैं केवल एक कमीज पहने खड़ा था और पाजामा उतार कर धोती पहन रहा था । पाजामे के नीचे लंगोट बँधा था । पिताजी ने हाथ से धोती छीन ली और कहा 'घर से निकल' । मुझे भी क्रोध आ गया । मैं पिताजी के पैर छूकर गृह त्यागकर चला गया । कहाँ जाऊँ कुछ समझ में न आया । शहर में किसी से जान-पहचान न थी कि जहाँ छिपा रहता । मैं जंगल की ओर भाग गया । एक रात और एक दिन बाग में पेड़ में बैठा रहा । भूख लगने पर खेतों में से हरे चने तोड़ कर खाए, नदी में स्नान किया और जलपान किया । दूसरे दिन सन्ध्या समय पं० अखिलानन्दजी का व्याख्यान आर्य-समाज मन्दिर में था । मैं आर्य-समाज मन्दिर में गया । एक पेड़ के नीचे एकान्त में खड़ा व्याख्यान सुन रहा था कि पिताजी दो मनुष्यों को लिए हुए आ पहुंचे और मैं पकड़ लिया गया । वह उसी समय स्कूल के हैड-मास्टर के पास ले गए । हैड-मास्टर साहब ईसाई थे । मैंने उन्हें सब वृत्तान्त कह सुनाया । उन्होंने पिताजी को समझाया कि समझदार लड़के को मारना-पीटना ठीक नहीं । मुझे भी बहुत कुछ उपदेश दिया । उस दिन से पिताजी ने कभी भी मुझ पर हाथ नहीं उठाया, क्योंकि मेरे घर से निकल जाने पर घर में बड़ा क्षोभ रहा । एक रात एक दिन किसी ने भोजन नहीं किया, सब बड़े दुःखी हुए कि अकेला पुत्र न जाने नदी में डूब गया, रेल से कट गया ! पिताजी के हृदय को भी बड़ा भारी धक्का पहुँचा । उस दिन से वह मेरी प्रत्येक बात सहन कर लेते थे, अधिक विरोध न करते थे । मैं पढ़ने में बड़ा प्रयत्न करता था और अपने दर्जे में प्रथम उत्तीर्ण होता था । यह अवस्था आठवें दर्जे तक रही । जब मैं आठवें दर्जे में था, उसी समय स्वामी श्री सोमदेव जी सरस्वती आर्य-समाज शाहजहांपुर में पधारे । उनके व्याख्यानों का जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव हुआ । कुछ सज्जनों के अनुरोध से स्वामी जी कुछ दिनों के लिए शाहजहाँपुर आर्य-समाज मन्दिर में ठहर गए । स्वामी जी की तबीयत भी कुछ खराब थी, इस कारण शाहजहाँपुर का जलवायु लाभदायक देखकर वहाँ ठहरे थे । मैं उनके पास आया-जाया करता था । प्राणपण से मैंने स्वामीजी महाराज की सेवा की और इसी सेवा के परिणामस्वरूप मेरे जीवन में नवीन परिवर्तन हो गया । मैं रात को दो-तीन बजे तक और दिन-भर उनकी सेवा-सुश्रुषा में उपस्थित रहता । अनेक प्रकार की औषधियों का प्रयोग किया । कतिपय सज्जनों ने बड़ी सहानुभूति दिखलाई, किन्तु रोग का शमन न हो सका । स्वामीजी मुझे अनेक प्रकार के उपदेश दिया करते थे । उन उपदेशों को मैं श्रवण कर कार्य-रूप में परिणत करने का पूरा प्रयत्न करता । वास्तव में वह मेरे गुरुदेव तथा पथ-प्रदर्शक थे । उनकी शिक्षाओं ने ही मेरे जीवन में आत्मिक बल का संचार किया जिनके सम्बन्ध में मैं पृथक् वर्णन करूंगा ।
कुछ नवयुवकों ने मिलकर आर्य-समाज मन्दिर में आर्य कुमार सभा खोली थी, जिनके साप्ताहिक अधिवेशन प्रत्येक शुक्रवार को हुआ करते थे । वहीं पर धार्मिक पुस्तकों का पाठन, विषय विशेष पर निबन्ध-लेखन और पाठन तथा वाद-विवाद होता था । कुमार-सभा से ही मैंने जनता के सम्मुख बोलने का अभ्यास किया । बहुधा कुमार-सभा के नवयुवक मिलकर शहर के मेलों में प्रचारार्थ जाया करते थे । बाजारों में व्याख्यान देकर आर्य-समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे । ऐसा करते-करते मुसलमानों से बुबाहसा होने लगा । अतएव पुलिस ने झगड़े का भय देखकर बाजारों में व्याख्यान देना बन्द करवा दिया । आर्य-समाज के सदस्यों ने कुमार-सभा के प्रयत्न को देखकर उस पर अपना शासन जमाना चाहा, किन्तु कुमार किसी का अनुचित शासन कब मानने वाले थे ! आर्यसमाज के मन्दिर में ताला डाल दिया गया कि कुमार-सभा वाले आर्यसमाज मन्दिर में अधिवेशन न करें । यह भी कहा गया कि यदि वे वहाँ अधिवेशन करेंगे, तो पुलिस को बुलाकर उन्हें मन्दिर से निकलवा दिया जाएगा । कई महीनों तक हम लोग मैदान में अपनी सभा के अधिवेशन करते रहे, किन्तु बालक ही तो थे, कब तक इस प्रकार कार्य चला सकते थे ? कुमार-सभा टूट गई । तब आर्य-समाजियों को शान्ति हुई । कुमार-सभा ने अपने शहर में तो नाम पाया ही था । जब लखनऊ में कांग्रेस हुई तो भारतवर्षीय कुमार सम्मेलन का भी वार्षिक अधिवेशन वहाँ हुआ । उस अवसर पर सबसे अधिक पारितोषिक लाहौर और शाहजहांपुर की कुमार सभाओं ने पाए थे, जिनकी प्रशंसा समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई थी । उन्हीं दिनों मिशन स्कूल के एक विद्यार्थी से मेरा परिचय हुआ । वह कभी-कभी कुमार-सभा में आ जाया करते थे । मेरे भाषण का उन पर अधिक प्रभाव हुआ । वैसे तो वह मेरे मकान के निकट ही रहते थे, किन्तु आपस में कोई मेल न था । बैठने-उठने से आपस में प्रेम बढ़ गया । वह एक ग्राम के निवासी थे । जिस ग्राम में उनका घर था वह ग्राम बड़ा प्रसिद्ध है । बहुत से लोगों के यहां बन्दूक तथा तमंचे भी रहते हैं, जो ग्राम में ही बन जाते हैं । ये सब टोपीदार होते हैं, उन महाशय के पास भी एक नाली का छोटा-सा पिस्तौल था जिसे वह अपने साथ शहर में रखते थे । जब मुझसे अधिक प्रेम बढ़ा तो उन्होंने वह पिस्तौल मुझे रखने के लिए दिया । इस प्रकार के हथियार रखने की मेरी उत्कट इच्छा थी, क्योंकि मेरे पिता के कई शत्रु थे, जिन्होंने अकारण ही पिताजी पर लाठियों का प्रहार किया था । मैं चाहता था कि यदि पिस्तौल मिल जाए तो मैं पिताजी के शत्रुओं को मार डालूं ! यह एक नाली का पिस्तौल वह महाशय अपने पास रखते तो थे, किन्तु उसको चलाकर न देखा था । मैंने उसे चलाकर देखा तो वह नितान्त बेकार सिद्ध हुआ । मैंने उसे ले जाकर एक कोने में डाल दिया । उस महाशय से स्नेह इतना बढ़ गया कि सांयकाल को मैं अपने घर से खीर की थाली ले जाकर उनके साथ साथ उनके मकान पर ही भोजन किया करता था । वह मेरे साथ श्री स्वामी सोमदेवजी के पास भी जाया करते थे । उनके पिता जब शहर आए तो उनको यह बड़ा बुरा मालूम हुआ । उन्होंने मुझसे अपने लड़के के पास न आने या उसे कहीं साथ न ले जाने के लिए बहुत ताड़ना की और कहा कि यदि मैं उनका कहना न मानूँगा तो वह ग्राम से आदमी लाकर मुझे पिटवाएँगे । मैंने उनके पास आना-जाना त्याग दिया, किन्तु वह महाशय मेरे यहां आते-जाते रहे ।
लगभग अट्ठारह वर्ष की उम्र तक मैं रेल पर न चढ़ा था । मैं इतना दृढ़ सत्यवक्ता हो गया था कि एक समय रेल पर चढ़कर तीसरे दर्जे का टिकट खरीदा था, पर इण्टर क्लास में बैठकर दूसरों के साथ-साथ चला गया । इस बात से मुझे बड़ा खेद हुआ । मैने अपने साथियों से अनुरोध किया कि यह तो एक प्रकार की चोरी है । सबको मिलकर इण्टर क्लास का भाड़ा स्टेशन मास्टर को देना चाहिये । एक समय मेरे पिता जी दीवानी में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह मुझ से करा लें । कुछ आवश्यकता पड़ने पर वकील साहब ने मुझे बुला भेजा और कहा कि मैं पिताजी के हस्ताक्षर वकालतनामें पर कर दूँ । मैंने तुरन्त उत्तर दिया कि यह तो धर्म के विरुद्ध होगा, इस प्रकार का पाप मैं कदापि नहीं कर सकता । वकील साहब ने बहुत कुछ समझाया कि एक सौ रुपए से अधिक का दावा है, मुकदमा खारिज हो जायेगा । किन्तु मुझ पर कुछ भी प्रभाव न हुआ, न मैंने हस्ताक्षर किए । अपने जीवन में सर्व प्रकार से सत्य का आचरण करता था, चाहे कुछ हो जाए, सत्य बात कह देता था ।
मेरी माता मेरे धर्म-कार्यों में तथा शिक्षादि में बड़ी सहायता करती थीं । वह प्रातःकाल चार बजे ही मुझे जगा दिया करती थीं । मैं नित्य-प्रति नियमपूर्वक हवन किया करता था । मेरी छोटी बहन का विवाह करने के निमित्त माता जी और पिता जी ग्वालियर गए । मैं और श्री दादाजी शाहजहाँपुर में ही रह गए, क्योंकि मेरी वार्षिक परीक्षा थी । परीक्षा समाप्त करके मैं भी बहन के विवाह में सम्मिलित होने को गया । बारात आ चुकी थी । मुझे ग्राम के बाहर ही मालूम हो गया था कि बारात में वेश्या आई है । मैं घर न गया और न बारात में सम्मिलित हुआ । मैंने विवाह में कोई भी भाग न लिया । मैंने माताजी से थोड़े से रुपए माँगे । माताजी ने मुझे लगभग 125 रुपए दिए, जिनको लेकर मैं ग्वालियर गया । यह अवसर रिवाल्वर खरीदने का अच्छा हाथ लगा । मैंने सुना था कि रियासत में बड़ी आसानी से हथियार मिल जाते हैं । बड़ी खोज की । टोपीदार बन्दूक तथा पिस्तौल तो मिले थे, किन्तु कारतूसी हथियार का कहीं पता नहीं लगा । पता लगा भी तो एक महाशय ने मुझे ठग लिया और 75 रुपये में टोपीदार पाँच फायर करने वाला एक रिवाल्वर दिया । रियासत की बनी हुई बारूद और थोड़ी सी टोपियाँ दे दीं । मैं इसी को लेकर बड़ा प्रसन्न हुआ । सीधा शाहजहाँपुर पहुँचा । रिवाल्वर को भर कर चलाया तो गोली केवल पन्द्रह या बीस गज पर ही गिरी, क्योंकि बारूद अच्छी न थी । मुझे बड़ा खेद हुआ । माता जी भी जब लौटकर शाहजहाँपुर आई, तो पूछा क्या लाये ? मैंने कुछ कहकर टाल दिया । रुपये सब खर्च हो गए । शायद एक गिन्नी बची थी, सो मैंने माता जी को लौटा दी । मुझे जब किसी बात के लिए धन की आवश्यकता होती तो मैं माता जी से कहता और वह मेरी माँग पूरी कर देती थीं । मेरा स्कूल घर से एक मील दूर था । मैंने माता जी से प्रार्थना की कि मुझे साइकिल ले दें । उन्होंने लगभग एक सौ रुपये दिए । मैंने साइकिल खरीद ली । उस समय मैं अंग्रेजी के नवें दर्जे में आ गया था । कोई धार्मिक या देश सम्बन्धी पुस्तक पढ़ने की इच्छा होती तो माता जी से ही दाम ले जाता । लखनऊ कांग्रेस जाने के लिए मेरी बड़ी इच्छा थी । दादी जी और पिता जी तो बहुत विरोध करते रहे, किन्तु माता जी ने मुझे खर्च दे ही दिया । उसी समय शाहजहाँपुर में सेवा-समिति का आरम्भ हुआ था । मैं बड़े उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग देता था । पिता जी और दादा जी को मेरे इस प्रकार के कार्य अच्छे न लगते थे, किन्तु माताजी मेरा उत्साह भंग न होने देती थीं । जिस के कारण उन्हें बहुधा पिता जी की डांट-फटकार तथा दंड भी सहना पड़ता था । वास्तव में, मेरी माता जी स्वर्गीय देवी हैं । मुझ में जो कुछ जीवन तथा साहस आया, वह मेरी माता जी तथा गुरुदेव श्री सोमदेव जी की कृपाओं का ही परिणाम है । दादीजी तथा पिता जी मेरे विवाह के लिए बहुत अनुरोध करते; किन्तु माता जी यही कहतीं कि शिक्षा पा चुकने के बाद ही विवाह करना उचित होगा । माता जी के प्रोत्साहन तथा सद्व्यवहार ने मेरे जीवन में वह दृढ़ता प्रदान की कि किसी आपत्ति तथा संकट के आने पर भी मैंने अपने संकल्प को न त्यागा ।
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