गुरुवार, 18 सितंबर 2008

देश की एकता व अखण्डता को चुनौती देने वाले ढोंगी नेताओं से सावधान

देश की एकता व अखण्डता को चुनौती देने वाले ढोंगी नेताओं से सावधान

निर्मल रानी

163011, महावीर नगर,  अम्बाला शहर,हरियाणा। फोन-09729229728 email: nirmalrani@gmail.com

 

       दुनिया के किसी भी स्वच्छ लोकतंत्र में 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का अपना अलग ही महत्व होता है। जिस लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घुटने लग जाए, उसे लोकतंत्र नहीं बल्कि तानाशाह शासन या अलोकतांत्रिक व्यवस्था का नाम दे दिया जाता है। देशवासी भली-भांति उस राजनैतिक घटनाक्रम से परिचित है जबकि 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा की गई थी। इस दौरान जहां अन्य तमाम कड़े ंफैसले लिए गए थे, वहीं मीडिया को भी नियंत्रित रखने हेतु कई कड़े नियम लागू किए गए थे। हमारे देश में आपातकाल का विरोध करने वालों ने तत्कालीन सरकार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने का आरोप लगाया था। इसका परिणाम यहां तक हुआ था कि आपातकाल लागू करने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व उनकी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को स्वतंत्रता के पश्चात पहली बार भारतीय मतदाताओं ने सत्ता से बेदंखल कर दिया था। यही वह दौर था जबकि इंदिरा गांधी जैसी तेंज तर्रार, दूर दृष्टि रखने वाली महिला को एक तानाशाह शासक होने का प्रमाण पत्र भी उनके विरोधियों द्वारा जारी कर दिया गया था।

              क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भारत जैसे बहुभाषी व बहुआयामी देश में कारगर प्रतीत होता है। अभी पिछले दिनों अमरनाथ श्राईन बोर्ड को जम्मु-कश्मीर सरकार द्वारा आबंटित की गई मामूली सी ंजमीन के मुद्दे को लेकर 'अभिव्यक्ति' का बांजार ंखूब गर्म देखा गया। कहीं सीमा पार चले जाने की धमकियां सुनने को मिलीं तो कहीं अलगाववादी विचार रखने वाले नेताओं द्वारा इसे 1947 के विभाजन जैसा माहौल बताया जाने लगा। मतों के ध्रुवीकरण के मद्देनंजर न सिंर्फ घाटी के क्षेत्रीय नेताओं द्वारा बल्कि साम्प्रदायिकता की आग में अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने वाले तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसे ंजहर बोए जाने लगे जिसका नकारात्मक प्रभाव पूरे देश पर पड़ सकता था। परन्तु जैसा कि हमेशा होता आया है, भारत माता की रक्षा उसी ईश्वीरीय शक्ति ने की तथा अमरनाथ श्राईन बोर्ड की ंजमीन को लेकर लगी आग जोकि बुझती हुई प्रतीत नहीं हो रही थी आंखिरकार किसी समझौते पर पहुंचकर नियंत्रित हो गई। जबकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार तथा सौदागर इस मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर इसे पूरी हवा देना चाह रहे थे। और कोई आश्चर्य नहीं कि आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान स्वयं को राष्ट्रवाद का स्वयंभू ठेकेदार समझने वाली देश की एक पार्टी इस मुद्दे का प्रयोग अभी भी अपने राजनैतिक हित साधने के लिए करे।

              उड़ीसा लगभग एक माह तक साम्प्रदायिकता की आग में जलता रहा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में ही उस राज्य में ईसाई मिशनरियों द्वारा बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन कराए जाने के आरोप हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा लगाए जाते रहे हैं। हिन्दू नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के पश्चात उड़ीसा के कंधमाल क्षेत्र में हिंसा का तांडव शुरु हो गया था। हिन्दुत्ववादी संगठनों का आरोप था कि धर्म परिवर्तन को रोकने के मिशन में लगे लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के पीछे उग्र ईसाई संगठनों का हाथ है। जबकि एक माओवादी संगठन द्वारा इस हत्या की ंजिम्मेदारी अपने ऊपर ली गई। इस प्रकरण में भी 'अभिव्यक्ति' का बांजार पूरी तरह गर्म रहा। हिन्दुत्ववाद के नाम पर ंजहर उगलने में महारत रखने वाले प्रवीण तोगड़िया ने कंधमाल जाकर अपनी 'विशेष स्वतंत्र अभिव्यक्ति' के

माध्यम से वह गुल खिलाया कि सैकड़ों ंगरीब व बेगुनाह लोग जाने से मारे गए तथा अपने घरों से बेघर होकर शरणार्थी शिविरों में रहने के लिए मजबूर हो गए। इसी प्रकरण में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी अपने दूरगामी लक्ष्य व प्रतिक्रिया के मद्देनंजर माओवादियों द्वारा लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की ंजिम्मेदारी लेने को ंगलत करार दिया तथा ईसाई संगठनों पर ही उनकी हत्या करने का संदेह जताया।

              और अब भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दंश झेल रही है। 'अभिव्यक्ति' करने वाले हैं मुंबई के तथाकथित स्वयंभू स्वामी ठाकरे परिवार विशेषकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे। उनकी इस ंजहरीली अभिव्यक्ति के निशाने पर हैं उत्तर भारतीय विशेषकर उत्तर प्रदेश व बिहार के लोग। राज ठाकरे क्षेत्रवाद का ंजहर बोकर अपनी ंजहरीली अभिव्यक्ति के माध्यम से मराठों के दिल में उत्तर भारतीयों के प्रति नंफरत पैदा करना चाह रहे हैं। इसका कारण यह ंकतई नहीं है कि उन्हें मुम्बई या महाराष्ट्र से गहरा लगाव है बल्कि उनकी इस चाल का मंकसद बहुसंख्य मराठा मतों पर अपना अधिकार जमाना मात्र है। ठाकरे परिवार ने मराठों के कल्याण के लिए कोई अभूतपूर्व कार्य किया हो, ऐसा कुछ भी नहीं। मात्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में उत्तर भारतीयों को गालियां देकर ठाकरे परिवार के लोग मराठों के दिलों में अपनी जगह बनाने का प्रयास कर रहे हैं। राज ठाकरे की हरकतें तो देखते ही बन पड़ती हैं। सार्वजनिक रूप से वे जिसकी चाहते हैं नंकल उतारने लग जाते हैं, जिसकी चाहें वे बोली बोलने लग जाते हैं तो कभी किसी को गालियां देने लग जाते हैं। मुम्बई में दुकानदारों, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों तथा कार्यालयों पर लगने वाले साईनबोर्ड किस भाषा में हों, इसकी इजांजत राज ठाकरे से लेनी पड़ेगी। मुम्बई में किसी कलाकार की ंफिल्म कब चलनी है और कब नहीं, यह भी राज ठाकरे की कृपादृष्टि पर ही निर्भर करता है। अपनी राजनैतिक हैसियत व अपने ंकद को नापे तोले बिना जिस कलाकार अथवा नेता को चाहें, राज ठाकरे क्षण भर में अपमानित कर सकते हैं। और यह सब मात्र 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के नाम पर खेले जाने वाले ंखतरनाक खेल हैं।

              गत् दिनों जब राज ठाकरे को उन जैसी रूखी भाषा में मुम्बई के संयुक्त पुलिस कमीश्र के एल प्रसाद द्वारा सांफ शब्दों में यह जवाब दिया गया कि 'मुम्बई किसी के बाप की नहीं है' तो राज ठाकरे तिलमिला उठे। आंध्र प्रदेश के नेल्लोर के 1982 बैच के आई पी एस अधिकारी प्रसाद द्वारा मुम्बई की ंकानून व्यवस्था के मद्देनंजर की गई यह 'अभिव्यक्ति' तो कोई इतनी ंगलत एवं कष्टदायक नहीं थी कि राज ठाकरे तिलमिला उठें। परन्तु राज ठाकरे को पुलिस कमीश्र प्रसाद का यह दो टूक बयान नहीं भाया। उन्होंने प्रसाद को नौकरी छोड़कर मैदान में आने की चुनौती दे डाली। इससे सांफ ंजाहिर होता है कि एक तथाकथित नेता होने के नाते राज ठाकरे को तो यह अधिकार है कि वे जब और जिसे चाहें और जिस भाषा में चाहें अपमानित कर दें। परन्तु ंकानून व्यवस्था बनाए रखने के मद्देनंजर यदि एक पुलिस अधिकारी खरी-खरी सुना दे तो वह ठाकरे को ंकतई बर्दाश्त नहीं है।

              कश्मीर से कन्याकुमारी तक महबूबा मुंफ्ती व राज ठाकरे जैसे और भी कई ऐसे नेता देखे जा सकते हैं जोकि राष्ट्रीय स्तर पर अपनी न तो कोई पहचान रखते हैं, न ही उनकी राजनैतिक गतिविधियां यह दर्शाती हैं कि उनमें सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रति कोई लगाव है। यदि हमें देश की एकता व अखण्डता को ंकायम रखना है तो ऐसी सीमित सोच रखने वाले स्वार्थी एवं ढोंगी नेताओं के राजनैतिक हथकंडों से हमें सावधान रहना होगा। हमें बड़ी सूक्ष्मता से इस बात पर नंजर रखनी होगी कि ऐसे नेता कब और क्या वक्तव्य दे रहे हैं और उनकी इस 'अभिव्यक्ति' के पीछे छुपा हुआ असली मंकसद क्या है? वह जो सुनाई दे रहा है और दिखाई नहीं दे रहा या फिर वास्तव में वह जो दिखाई बिल्कुल नहीं पड़ रहा अर्थात् सत्ता का सीधा रास्ता और वह भी नंफरत, दुर्भावना, दंगों व ंफसादों के रास्ते से होता हुआ।       निर्मल रानी

 

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