स्व.राजीव गांधी के जन्म दिवस पर विशेष आलेख
जरूरत अँगूठा छाप नेताओं से छुटकारे की, अब वक्त पढ़ी लिखी वैज्ञानिक पीढ़ी का- 1
भाग-1
नरेन्द्र सिंह तोमर 'आनन्द'
यह विडम्बना ही है देश की हम एक अरब से ऊपर की संख्या में भारतवासी आज भी देश के लिये साक्षरता अभियान, सर्व शिक्षा मिशन और अनौपचारिक शिक्षा की वैशाखीयों का सहारे चलने को मजूबर हैं, यह शर्मनाक और अफसोस जनक तथ्य है कि भारत जो युगों से कई मामलों में विश्व गुरू रहा, आज अपने नौनिहालों और भावी कर्णधारों को विशेष अभियान और योजनाओं के जरिये शिक्षित करने पर मजबूर है ।
भारत को आजाद हुये 62 साल गुजर गये, देश की भाषा में कहा जाये तो आजादी सठिया गई, हमारे लालू प्रसाद जी की भाषा में कहें तो साठा सो पाठा ( साठ के बाद आदमी पठ्ठा होता है) खैर जो भी है, एक लम्बा अन्तराल गुजर चुका है और यूं ही महज मसखरी में गुजर चुका है, केवल अधुनातन और नवीन प्रयोगों में ही हमारी सरकारें और नेता वक्त जाया करते रहे हैं, देश अभी तक केवल एक प्रयोगशाला के मानिन्द ही व्यवहृत होता रहा है ।
कोई दो बरस पहले मैंने अंग्रेजी में एक आलेख लिखा था जिसमें प्रश्न उठाया था कि आखिर कब तक भारत विकासशील ही बना रहेगा और विकासशील देश की संज्ञा से उच्चारित होता रहेगा, आखिर वह सुबह कब आयेगी जब भारत को विकसित देश कहा जा सकेगा । आज भारत विकसित देश क्यों नहीं हो सकता । मुझे खुशी है कि मेरी बात का इशारा भारत सरकार समझ गयी और कई एक बातें और कई कदम सरकार के कुछ इस तरह उठे कि विकासशील से विकसित भारत में तब्दीली की परिभाषा हेतु पर्याप्त माद्दा रखते थे । हॉं ठीक हैं, कुछ हुआ मगर न तो यह संतोषजनक है और न पर्याप्त, अभी तो महज एक शुरूआती नींव का पत्थर है और बगैर इन्तजार के अब धड़ाधड़ कदम दर कदम आगे बढ़ते हुये नयी बुनियाद पर भारत की नयी इमारत और नयी तस्वीर गढ़नी होगी ।
बिना लाग लपेट के कहें तो स्वामी विवेकानन्द के सूत्र के तुरन्त अमल में लाना होगा । उत्तिष्ठत, जागृत । इसमें श्रीकृष्ण का चेतना व कर्मयोग का सूत्र मिलाते हुये जेम्स एलन के परिच्छेद को उद्धृत कर अपनी परिभाषा स्वयं हि तुरन्त और तत्काल गढ़नी होगी, भारत को, भारत के नौजवानों को तुरन्त तत्काल चेतना होगा, जागना होगा और उठ खड़ा होना होगा फिर तत्काल ही सक्रिय भी होना होगा ।
देश पहले ही काफी फिजूल वक्त बर्बाद कर चुका है, भारत को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आज तक महज प्रयोगशाला बना कर ही तमाम योजनाओं और नीतियों की अदल बदल कर केवल परीक्षण ही किया जाता रहा है, परिणाम यह हुआ कि न तो सरकारें और न नेता ही न जनता का भला कर पाये, तथाकथित कल्याण या लोक कल्याण या जन कल्याण महज एक नाटक नौटंकी ही बना रह गया । समूचे देश को प्रयोगशाला के रूप में नित नये प्रयोग कर सरकारें केवल देश और जनता का महज अहित ही करतीं रहीं, तमाशा यह है कि निष्कर्ष या ठोस परिणाम आज तक किसी भी प्रयोग के हमारे पास नहीं हैं ।
प्रयोगधर्मीयों ने देश को 62 साल तक नुकसान पहुंचाया है, अब वक्त आ गया है इनको एक झटके से उखाड़ने और भारत से बाहर धकेलने का ।
लोकतंत्र मजाक और तमाशा बनकर नेताओं की मसखरी का साधन मात्र हो गया । सरकारें और प्रयोगधर्मी नेताओं के साथ मिल कर प्रयोग करते रहे, योजनायें बदलतीं रहीं, नीतियां बदलतीं रहीं कोई योजना छ महीने चली तो कोई चल ही नहीं पायी, कोई बदल गयी कियी का नाम बदल गया किसी को नई बोतल में पुरानी शराब की तरह कई बार परोसा गया । पिछले कई साल से यह नौटंकी तमाशा भारत में चलता आ रहा है, अब एक झटके में बन्द हो जाना चाहिये सब । वरना हम विकासशील देश से कभी भी विकसित भारत नहीं बन सकते ।
मैं एक दृष्टान्त देता हूं, अधिक आसानी से विषय को समझा जा सकेगा ।
मैं उन दिनों वर्ष 1995 में नेशनल नोबल यूथ अकादमी के लिये शिक्षा और रोजगार पर एक वीडियो फिल्म तैयार करवा रहा था (यह फिल्म अभी हमारे पास है) मेरे मस्तिष्क में बेरोजगारों के लिये शिक्षा प्रशिक्षण और रोजगार पर महत्वपूर्ण योजनाओं और उनसे कैसे बेरोजगार युवा लाभ उठा सके यह कन्सेप्ट था और इसी विषय पर हम काम कर रहे थे । फिल्म में प्रायवेट व्यावसायिक व रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण केन्द्रों, तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्रों, एजुकेशनल कोचिंगों के अलावा सरकारी कार्यालय प्रमुखों तथा, शिक्षा विभाग और प्रशिक्षण संस्थान, रोजगार कार्यालय, युवाओं के लिये कार्यरत सरकारी संस्थाओं मसलन नेहरू युवा केन्द्र, स्वयंसेवी संगठनों व संस्थाओं सहित कुछ बेरोजगारों के इण्टरव्यू शूट किये जाने थे साथ ही बेरोजगारी से संबंधित और प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों और संगठनों व संस्थानों को भी इसमें शामिल करना था । पहले इसे लघु फिल्म के रूप में बनाने का विचार था सोचा कि डाक्यूमेण्ट्री रिलीज कर देंगें लेकिन फिल्म शूट होते होते कई ऐंसीं अद्भुत चीजें निकल कर सामने आयीं कि फिल्म अपने आप ही बहुत लम्बी और अच्छी बन पड़ी, बस दिक्कत यह हुयी कि हम जितना भी सरकारी पक्ष को इकठ्ठा करके लाये, वह सारा समूचा ही निगेटिव और एब्सर्ड हो रहा था ।
सरकारी अधिकारीयों ने जहॉं अपने इण्टरव्यूओं में उल्टे सीधे बयान दे दिये थे वहीं कहीं से कोई उपयोगी यानि काम की बात निकल कर सामने नहीं आयी ।
सरकारी कार्यालयों में 98 फीसदी यह हालत थी कि उन्हें अपने विभाग की योजनाओं और हितग्राही मूलक किसी भी कार्यक्रम की लेशमात्र भी जानकारी नहीं थी । और वे काम की बात बताने के बजाय इधर उधर बहक जाते थे, हमें कैमरा बार बार रूकवा कर दोबारा दोबारा सीन शूट करने पड़ते थे, अधिकारी बार बार अपने बाबूओं को बुलाते और पूछते क्यों भई एक वो योजना भी तो थी, उसका क्या हुआ चल रही है कि बन्द हो गयी , बाबू सिर खुजाता, और कहता सर पता नहीं हैं, रोज तो योजना बदल जातीं हैं, कहॉं तक ध्यान रखें अब देखना पड़ेगा कि चल रही है कि नहीं । बाबू फाइलों में योजनायें और कार्यक्रम खंगालते, खोज खोज कर पगला जाते मगर योजनाओं के न सिर मिल पाते न पैर । राम राम कह कर जैसे तैसे हमने फिल्म पूरी की और चन्द दिनों के भीतर जान लिया कि इस देश में बेरोजगारों कैसे उद्धार हो रहा है ।
हमारा कैमरा जब शिक्षा विभाग में पहुँचा (सीन मजेदार और देखने लायक हैं) तब उपसंचालक शिक्षा का जिला स्तर पर कार्यालय होता है अब आजकल इसे जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय कहा जाता है ।
कूड़े कबाड़ के मानिन्द योजनायें कहीं बस्तों में बन्द दबी पड़ीं तो कहीं योजना का अता पता नहीं, पूरा शिक्षा विभाग खंगाल डाला कहीं कोई योजना नहीं मिली । कहीं शराब के दौर (कैमरा सभी कक्षों में अचानक घुमाया गया था) तो कहीं सिगरेटों के कश, कहीं टेबलों पर लात पसारे बैठे मक्खीयां मार रहे बाबू तो कहीं, मॉं बहिन की गालीयों से आपस में उलझ रहे सरकारी कर्मचारी, कहीं रिश्वत की खलेआम मांग तो कहीं कक्षों के बंटवारे को लेकर विवाद, कहीं अटैचमेण्ट के लिये मारामारी तो कहीं नियुक्ति और ट्रान्सफर की सेटिंग । बड़ा ही अजीबो गरीब सा माहौल था । (मुझे बाद में जिला पर्यावरण समिति के तहत डेढ़ साल तक इसी कार्यालय में बैठने और काम करने का मौका मिला, तब मैंने अपनी रिसर्च बहुत अधिक पुख्ता ढंग से की) लेकिन मैं दंग था सारा सब कुछ देख कर ।
कुल मिला कर निष्कर्ष यह है कि रोजाना आने वाली और बदलती रहने वाली योजनाओं का हितग्राही तक खैर क्या लाभ पहुँचता होगा जब सम्बन्धित विभाग या उसके बाबूओं को भी उनकी जानकारी न हो, अफसर लोक कल्याण और उसकी योजनाओं के प्रति सर्वथा निरक्षर और अज्ञानी हों । खैर ये तब की बात है जब देश में इण्टरनेट नहीं था और इतने अधिक संसाधन व स्त्रोत नहीं थे तथा देश पूरी तरह आश्रित होकर सरकारी अफसरों को भगवान और बाबूओं को महाराज मान कर पूजता था तथा काम की किसी योजना की जानकारी मात्र के लिये सरकारी कार्यालयों और बाबूओं अफसरों को रिश्वत भी देता था उनके घर चक्कर मार मार कर चकरघिन्नी हो जाता था । आज इण्टरनेट ने मामला पलट उलट दिया है, अब जानकारीयां व सूचनायें अपनी पहुँच खेत, गॉंव और घरों तक बना चुकीं हैं, अब अधिकतर चीजों के लिये दफ्तरों और अफसर बाबूओं के चक्कर नहीं लगाने पड़ते ।
अब योजना की तस्वीर भी दिख जाती है, और उसकी ताबीर भी । उसकी तब्दीली भी साफ दृष्टिगोचर होती है और अर्जी फर्जीवाड़ा और फिजूल प्रयोगधर्मिता तथा नकली नाटक नौटंकी भी साफ दिख जाती है ।
इण्टरनेट ने काफी कुछ बदल दिया है, नये भारत की तस्वीर भी रचना शुरू कर दी है । लेकिन राकेट में बैठकर अंतरिक्ष व ग्रहों की सैर करते इस विश्व में अब भी कई मूसलपंथी हैं जो आज तक बैलगाड़ी का पहिया थामें हैं औंर माया मोहवश उसे छोड़ना ही नहीं चाह रहे, इन कूप मण्डूकों ने भारत का बहुत नुकसान किया है । घुन की तरह देश को खाया है । देशभक्ति की खाल में भ्रष्ट और देशद्रोहीयों की पूरी एक फौज छिपी बैठी है । जल्द से जल्द और तुरन्त भारत को इन तत्वों से मुक्ति पानी होगी ।
भला कौन ऐसा देशभक्त होगा, जो भारत को विकासशील से विकसित भारत में बदलते नहीं देखना चाहेगा, या कौन ऐसा देश का सपूत होगा जो भारत में लगे दीमक या घुन रूपी भ्रष्टाचार को सतत रहने देना चाहेगा, इसके बावजूद देशभक्ति और अलां फलां सेनानी का राग अलापने और देश को कुयें में ढकेलने या 'खाओ और खाने दो ' के सिद्धान्त को निरन्तर रखने के हामी हैं तो ऐसे लोगों को तो देश भक्त कहना या मानना ही सबसे बड़ा देश द्रोह है ।
जो भी भारतवासी भ्रष्ट है, रिश्वत लेता है वह कतई देशभक्त तो ही नहीं सकता उसे भारतीय तो कहा ही नहीं जा सकता । रिश्वत देना मजबूरी हो सकती है लेकिन रिश्वत लेना तो क्लीयरकट देशद्रोह है ।
अगर इस प्रकार के लोगों की बर्दाश्तगी जारी रही तो और हम इन तत्वों को यदि इस देश में रहने देते हैं तो सबसे बड़े देशद्रोही तो हम सब ही हैं ।
अगले अंक में जारी ............
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