ग्वालियर चम्बल- पार्टीयों से हटकर, प्रत्याशीयों की व्यक्तिगत छवि पर होगा चुनाव संग्राम
चम्बल के परिणाम जातिवाद पर ध्रुवीकृत, अफवाहों और कयासों का दौर जारी
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
चुनाव चर्चा-1
वैसे तो समूचे देश में ही अबकी बार का आम चुनाव कुछ खास और निराले अंदाज में हो रहा है और देश में परिपक्व होते लोकतंत्र की एक हल्की सी झलक भी इन चुनावों में देखने को मिलेगी ।
अबकी बार पार्टीयों का जादू और जंजाल लगभग पूरी तरह बेअसर है, न कोई मुद्दा है न कोई लहर, पार्टी का नाम बेअसर । चुनाव जैसे पूरी तरह प्रत्याशी पर आधारित होकर रह गये हैं ।
पार्टी के बजाय प्रत्याशी चयन पर आधारित चुनाव एक स्वस्थ व परिपक्व लोकतांत्रिक अवधारणा का स्पष्ट संकेत है 1 अब विज्ञापनों से मतदाता बेवकूफ बनने की स्िथति में नहीं है, न उस पर जय हो का कोई असर है और न भय हो का । बल्कि ये विज्ञापन आम जनता जनार्दन यानि आम मतदाता यानि गरीब की लुगाई के लिये महज जसपाल भट्टी के उल्टा पुल्टा जैसे शो मात्र बन कर रह गये हैं और जनता नेताओं की जोकरनुमाई हरकतों का ठहाका मार कर आनन्द ले रही है । जैसे चुनाव विज्ञापन अभियान न होकर ठहाका टाइप कामेडी सीरियल चल रहे हों ।
देश में जो अबकी बार सबसे अच्छी चीज उभर कर आ रही है वह आम मतदाता का पार्टीवाद से मोह भंग होने का है । अब प्रत्याशीवाद पर टिकते जा रहे ये चुनाव यह संकेत भी देगें कि देश को स्वतंत्र रूप से सोचने दीजिये, उसे स्वतंत्र निर्णय लेने दीजिये , बहुत हुआ व्हिप जारी करने का खेल, किसी एक पार्टी का निर्णय देश का निर्णय नहीं होता, पार्टी गलत करे या सही अब सांसदों की रबर ठप्पा भूमिका बन्द कराईये । उसे अपने दिल व दिमाग से सोचने दीजिये, सांसदों के नाम पर पालतू कुत्ते पालना और टुकड़े फेंक कर दुम हिलवाना बन्द करिये ।
राजनीतिक विश्लेषण तो यह तीव्र संकेत देता है कि आने वाले दो तीन चुनाव बाद यानि सत्रहवीं या उन्नीसवीं लोकसभा तक क्षेत्रीय दलों का भी अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और तकरीबन इक्कीसवीं लोकसभा तक पूर्णत: निर्दलीय सरकार या राष्ट्रीय सरकार अस्तित्व में आ जायेगी ।
नेताओं ने देश को प्रयोग शाला बना रखा है, जिसका तीव्र आक्रोश जनता में स्वाभाविक है, लगभग नब्बे फीसदी सांसद संसद में अपनी पार्टीयों में अपने आकाओं के महज राजनीतिक चमचे मात्र बन कर पूरे पॉंच साल का वक्त गुजार आते हैं और अपने साहब से पांच साल तक सिर्फ ये पूछते रहते हैं कि साब दस्तखत कहॉं करना है । न उनमें खुद का दिमाग होता है, न खुद की सोच न खुद का विचार, या तो जो पार्टी कह दे या जो उनका आका कह दे, उन्हें सिर्फ वही भूमिका कठपुतली के मानिन्द निभानी होती है या फिर महज रबर सील की तरह उनके ठप्पे लगते रहते हैं । कुछ ऐसी प्रयोगशाला और अपरिपक्व बीमार लोकतंत्र हमारे देश में चलता रहा है, नेताओं ने जनता को चूहा, बंदर या खरगोश की तरह अपने सभी प्रयोग आजमाये हैं, हर भावना में देश को बहाया है, देश ने कभी राम के मंदिर पर विश्वास किया तो कभी गरीबी हटाओ पर, कभी सांप्रदायिकता के विरोध को अपनाया तो कभी रामराज्य की अवधारणा को, कभी बेरोजगारी मिटाने पर यकीन किया तो कभी सामाजिक न्याय पर, कभी धारा 370 को देश की तकदीर माना तो कभी भ्रष्टाचार का खात्मा उसका सपना बना । मतदाता बेचारा हर बार बार बार बार नेताओं पर विश्वास करता रहा, लेकिन उसका सपना कभी नहीं पूरा हुआ । आजादी के 62 साल तक नेता दनादन उसे सपना दिखाते रहे, वह देखता रहा और इन्तजार करता रहा कि वह सुबह कभी तो आयेगी । उस सुबह को न आना था न आयी ।
अब नेताओं के पास मतदाता को दिखाने के लिये कुछ नहीं बचा, न झूठे सपने का कोटा बचा और न वायदों का पिटारा । अब आपस में ही एक दूसरे पर आक्थू आक्थू में भिड़े हैं, अब हालात ये हैं कि एक कह रहा है, तेरी नाक चपटी, दूसरा कह रहा है तेरी मैया नकटी, एक बोलता है कि तू भेड़ा तो दूसरा कह रहा है कि तू केंड़ा । एक दूसरे पे कीच उछालते राजनीतिक दलों के दल दल में सबके कपड़े गन्दे हैं, होली खिल रही है मगर कीच की । एक बोला तू सवा सौ साल की बुढि़या तो दूसरा बोला अभी तो मैं जवान तू बुढ्ढा ।
वा रे देश वाह रे नेता, कौन है जो नंगा पैदा नहीं हुआ, कौन है जो हमाम में नंगा नहीं हैं । बहुत हुआ अब एक दूसरे को कित्ता नंगा करोगे । लगता है देश नेताओं की ब्ल्यू फिल्म सरे आम सरे राह देख रहा है । कैसे देश चलाओगे, नंगई प्रतियोगिता है या चुनाव । अब तो लगाम दो कीच फिकाई को । मतदाता चकरघिन्नी हो रहा है, उसे इतने बुरे गन्दे और नंगों में से कम बुरे और कम नंगे कम गन्दे को चुनना है, चुन लेने दो । शन्ति से चुन लेने दो । देश को पता है नंगो पर पैसा बहुत है, उल्ला रहे हैं, उलीच रहे हैं, दूसरों की नंगई बताते बताते अपने चड्डी खेल कर दिखा रहे हैं कह रहे हैं देखो मेरी नंगई सलामत है । स्टाप इट । स्टाप इट इमीजियेटली स्टाप इट । गरीब निर्दलीयों को भी अपनी बात इस देश में कहने दो, उनमें कहीं अधिक अच्छे लोग अच्छे उम्मीदवार हैं, केवल उन पर पैसा नहीं है इसलिये वे अपना प्रचार तक नहीं कर पा रहे ।
दादा सोमनाथ की बद्दुआ काश कामयाब हो कि ''तुम सब हार जाओ'' सब निर्दलीय जीत जायें ।
क्रमश: जारी अगले अंक में ........
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