रतनजोत : पड़त भूमि के लिए वरदान
Article BY: Regional Public Relations Office- Gwalior Chambal Region
रतनजोत अर्थात जेट्रोफा करकस अर्थात जैव ईंधन वनस्पति पड़त भूमि के लिये वरदान साबित हो रही है । भारतवर्ष में यह सफेद अरण्ड, विदेशी अरण्ड, चंद्रजोत, काला अरण्ड, रेंडा एवं किड बिजौला इत्यादि नामों से भी जानी जाती है। यह यूफोरविएसी फैमली का पौधा है भिण्डी भी इसी फैमली में आती है । यह उष्ण एवं उपोष्णा कटिबन्धीय क्षेत्रों में बहुतायत में पाया जाता है । यह अत्यंत सूखारोधी वनस्पति है किन्तु जल भराव को भी सहन करने की क्षमता रखती है । इसे कोई जानवर नहीं खाता और न ही इसकी पैदावार के लिये रासायनिक खाद अथवा कीटनाशकों की आवश्यकता होती है । रतनजोत अर्थात जेट्रोफा बहुवर्षीय फसल है जो लगातार कई वर्षों तक पैदावार देती है । इसका उपयोग औषधीय,औद्योगिक, जैव ईंधन के रूप में तथा खेतों में बाड़ के रूप में भी किया जाता है । इधर जैव ईधंन के रूप में रतनजोत के उपयोग के बाद कृषक रतनजोत की खेती में अधिक रूचि लेने लगे हैं और जागरूक भी हुये हैं ।
बहुआयामी वनस्पति रतनजोत अर्थात जेट्रोफा की आधा दर्जन प्रजातियां हैं । दक्षिण भारत तथा बंगाल में जंगल एवं पड़त भूमि में जेट्रोफा ग्लेंडुलिफेरा बहुतायत में पाया जाता है। इसके बीज आकार में छोटे तथा जेट्रोफा करसक की तुलना में कम तेल वाले होते हैं । अन्य प्रजातियों में जेट्रोफा मल्टीफिडा, जेट्रोफा पंडरिफोलिया, जेट्रोफा पोडागिरिका तथा जेट्रोफा गोसिपिफोलिया है ।
भारत के तीव्र आर्थिक विकास में पेट्रोलियम पदार्थों की आपूर्ति हेतु विदेशों पर निर्भरता एवं उनकी आसमान छूती कीमतें देश के आर्थिक विकास में एक बड़ी बाधा है । ऊर्जा के इस चिंताजनक परिदृश्य में रतनजोत एक अनमोल वानस्पतिक संपदा के रूप में उभरी है । इसके बीजों से मिलने वाले तेल को एक सरल उपचार के बाद इंजनों में डीजल के स्थान पर प्रयोग किया जा सकता है । वहीं दूसरी ओर यह पर्यावरण के लिये सुरक्षित हैं क्योंकि इसमें सल्फर नहीं रहता है ।
रतनजोत में बीज के वजन का 35-40 प्रतिशत एवं गिरि के वजन को 50-60 प्रतिशत तेल होता है । जिसे आर्थिक रूप से उद्योगों के लिये प्रयोग किया जा सकता है । मुख्यत: साबुन बनाने में, जलाने के लिये, लुब्रीकेंट व मोमवत्ती बनाने में इसके तेल का उपयोग किया जाता है । इसके तेल से प्लास्टिक व सिन्थेटिक फाइबर के लिये कच्चा माल भी तैयार किया जाता है । चीन में यह वार्निश बनाने के काम में आता है । रतनजोत की छाल से नीले रंग की डाई मिलती है, जिसमें कपड़ों व मछली पकड़ने वाले जाल को रंगा जाता है । इसका तेल सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण के लिये भी काम में लाया जाता है ।
रतनजोत को कोई जानवर नहीं खाता इसलिये इसे वानस्पतिक बागड या बंधान के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है । इस उपयोग के लिये पौधों को कम दूरी पर लगाना चाहिये। इस तरह रोपित बागड से मृदा संरक्षण, बंधान, सुदृढ़ीकरण एव फसली पौधों की अवांछित जानवरों से रक्षा होती है, साथ ही रतनजोत के बीजों को बेचकर अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । रतनजोत वर्ष में एक बार अपने सारे पत्ते गिरा देता है, जिससे भूमि को जहां एक ओर कार्बनिक पदार्थ मिलता है, वहीं दूसरी ओर जैविक क्रियायें मिट्टी में बढ़ जाती हैं ।
रतनजोत में जेट्रोफिन नाम का रासायनिक पदार्थ पाया जाता है । जिसमें केंसर प्रतिरोधी क्षमता होने के कारण इसका उपयोग केंसर रोधी औषधियों के निर्माण में किये जाने की अपार संभावनायें मिली है । इसके तेल का उपयोग त्वचा संबंधी रोग जैसे दाद, खाज, खुजली आदि के उपचार हेतु भी किया जाता है ।
जेट्रोफा विभिन्न प्रकार की जलवायु एवं भूमि पर लगाया जा सकता है । शुष्क व अर्ध्दशुष्क पथरीली, रेतीली, बलुई एवं कम गहराई वाली भूमि पर आसानी से लगाया जा सकता है । यह वर्ष में एक बार पत्ते गिरा देने वाला, चिकना, मुलायम काष्ठ युक्त बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है । इसकी ऊचांई 3-4 मीटर, पत्तियां हृदयकार, हल्के पीले हरे रंग की तथा चिकनी होती हैं । पत्तियां तने पर एकान्तर क्रम में विन्यासित होती हैं। शाखाओं के अंतिम सिरे पर सितम्बर से नवम्बर तक सफेद रंग के फूल लगते हैं । अक्टूबर से दिसम्बर तक फल गुच्छों में लग जाते हैं जो कि केप्सूल के रूप में शुरू में हरे रंग के रहते हैं । पकने पर पीले व बाद में कालापन लिये गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं । फल के अंदर अमूमन 3-4 बीज होते हैं जो आकार में छोटे व कालिमा लिये गहरे भूरे रंग के होते हैं ।
रतनजोत का प्रबर्धन बीज एवं कटिंग दोनों तरीकों से संभव है । इसके बीजों एवं कलमों से नर्सरी तैयार कर खेतों में रोपण किया जा सकता है । बीज से नर्सरी तैयार करने के लिये रेत, मिट्टी व गोबर की खाद को 1:1:1 के अनुपात में 500 ग्राम की पॉलिथीन की थैलियों में भरकर उनमें बिजाई कर दी जाती है । बिजाई के बाद झारे से पानी लगाकर मिट्टी को नम रखा जाता है ।
बिजाई फरवरी - मार्च व जुलाई- अक्टूबर में की जाती है । बिजाई के लिये बड़े स्वस्थ्य व भारी बीजों का प्रयोग किया जाता है, इसके लिये बीजों को पहले 24 घंटे पानी में भिगोना चाहिये । नीचे बैठे भारी बीजों की मिट्टी खाद मिश्रण युक्त थैलियों में 2-3 से.मी. गहराई पर बोना चाहिये । बिजाई के 4-6 माह बाद पौधे खेत में लगाने के लिये तैयार हो जाते हैं ।
कलम (कटिंग) से पौधे तैयार करने के लिये कलमों को मातृ पौधे से एकत्रित किया जाता है । ध्यान रहे कि कलमें हरी मुलायम 30-45 से.मी. लम्बी व 3-4 से.मी. मोटी व अधिक आंख (बड) युक्त हों । कलमें क्यारियों में 15
15 से.मी. की दूरी पर लगाई जाती हैं। कलमों में 20-25 दिन में जड़ें आ जाती हैं । 6 माह से एक वर्ष के पौध को खेतों में लगाया जा सकता है । कलम लगाने का उपयुक्त समय फरवरी-मार्च होता है । इस विधि से तैयार पौधों में फल जल्दी आते हैं । नर्सरी में तैयार 6-8 माह तक के पौधों का खेतों में रोपण बरसात आने पर जुलाई से सितम्बर तक किया जाता है । पौधों को 30
30
30 से.मी. से 45
45
45 से.मी. के गढ्ढों में 2
2 मीटर या 3
1.5 मीटर पर लगाया जाना चाहिये । गढ्ढों में यदि 1-2 किग्रा सडी गोबर की खाद, 50 ग्राम नत्रजन (100 ग्राम यूरिया) व 30 ग्राम स्फुर (200 ग्राम एस.एस.पी) व पोटाश (50 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश) मिलाकर गढ्ढे को भरें । यदि पौध रोपण के बाद वर्षा न हो तो सिंचाई अवश्य करें । बीज और कलमों को बरसात के समय सीधे भी खेत में गढ्ढे खोदकर व खाद डालकर लगाया जा सकता है । कलम द्वारा तैयार पौधों में बीजोत्पादन अप्रेक्षाकृत जल्दी एवं अधिक होता है । मार्च माह में पौधों को 60-90 से.मी. जमीन से ऊपर काट दिया जाता है ताकि नई शाखायें निकल सकें। काटने की क्रिया केवल 2-3 वर्ष तक ही करें । इससे पौधे में शाखायें अधिक बन जाती हैं व बीजोत्पादन अधिक होता है ।
रतनजोत को 3
1.5 मीटर में रोपाई कर इसकी पंक्तियों के मध्य में अन्तरवर्तीय फसलें जैसे- कालमेघ, असंगध, मूंग, उड़द व तिल आदि की फसलें ली जा सकती हैं । प्रथम वर्ष रोपाई के बाद पर्याप्त वर्षा न होने पर हल्की सिंचाई करें। शीत व ग्रीष्म ऋतु में क्रमश: 15-20 दिन एवं 7-8 दिन पर सिंचाई करते रहें । दूसरे वर्ष से सिंचाई की आवश्यकता नही होती हैं परंतु सीमित मात्रा में सिंचाई करने से भी बढवार व फलन अच्छा किया जा सकता है। छाल खाने वाली इल्लियां व फलीछेदक इल्लियां रतनजोत के प्रमुख कीट हैं । इसके नियंत्रण हेतु क्विनॉलफॉस 25 ई.सी. या रोगर (2 मिली/लीटर पानी) का छिड़काव करना चाहिये। कॉलररोट नामक बीमारी इस फसल की शुरूआत में या नर्सरी में देखी जाती है अत: नर्सरी में कार्बन्डाजिम नामक दवा से उपचार कर बीज बोएें । खेत में बीमारी का प्रकोप होने पर इसी दवा को 0.02 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें ।
दूसरे या तीसरे वर्ष फल आने लगते हैं । प्रथम तुड़ाई में 2-5 क्वि. प्रति हैक्टर उपज प्राप्त होती है । चार -पाँच वर्षों के बाद 8-14 क्वि. प्रति हैक्टर उत्पादन प्राप्त होने लगता है।
रतनजोत का उपयोग जैव डीजल बनाने में प्रमुखता से किया जाता है । इसके तेल को ट्रांस्एस्टीरिफिकेशन विधि द्वारा बायोडीजल में परिवर्तित किया जाता है । इसमें सबसे पहले रतनजोत के तेल को छाना जाता है । इसके बाद वसा दूर करने के लिए क्षार से क्रिया कराई जाती है । इसमें अल्कोहल और एक उत्प्रेरक (सोडियम या पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड) मिलाया जाता है, जिसके कारण रतनजोत के तेल में उपलब्ध ट्राइग्लिसराइड्स इनसे क्रिया कर ईस्टर व ग्लिसरॉल का निर्माण करते हैं । जिन्हें अलग-अलग करके शुध्द कर लिया जाता है । ईस्टर को बायोडीजल के रूप में प्रयोग करते हैं ।
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