विशेष लेख: कृषि : रोजगार का जरिया बन सकती है ग्वारपाठा की खेती
श्री मनोहर कुमार जोशी*
राजस्थान में ऐसे बेरोजगार युवक जिनके पास कम से कम एक हैक्टेयर कृषि भूमि है, उनके लिए ग्वारपाठा (एलोवेरा) की खेती रोजगार का जरिया बन सकती है। शुष्क और उष्ण जलवायु में पैदा होने वाली ग्वारपाठा की खेती के लिए राजस्थान की जलवायु और मिट्टी सर्वाधिक उत्तम मानी जाती है। ग्वारपाठा मूलत: दो प्रकार का होता है, एक खारा ग्वारपाठा और दूसरा मीठा ग्वारपाठा। खारा ग्वारपाठा आयुर्वेदिक औषधियों एवं सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री तैयार करने के लिए काम में लिया जाता है, जबकि मीठा ग्वारपाठा का इस्तेमाल अचार और सब्जी बनाने के लिए होता है।
कृषि विशेषज्ञों एवं जानकारों के मुताबिक राजस्थान में फिलहाल तीन हजार हैक्टेयर से अधिक भूभाग पर किसान ग्वारपाठे की खेती कर रहे हैं। एक हैक्टेयर में ग्वारपाठा के बीस हजार पौधे लगाये जा सकते हैं। इस पर वर्ष भर में 50 से 60 हजार रूपये का खर्चा आता है। पूरे साल में वर्षा के मौसम को छोड़ कर करीब 12 बार सिंचाई की जरूरत होती है। गर्मी के मौसम में महीने में एक अथवा दो बार सिंचाई करनी पड़ती है। ग्वारपाठे की अच्छी फसल के लिए 15 टन प्रति हैक्टेयर गोबर की खाद दी जा सकती है। एक साल बाद पत्तियों के रूप में उत्पादन शुरू हो जाता है। सिंचित क्षेत्र में 30 टन तथा असिंचित क्षेत्र में 20 टन प्रति हैक्टेयर सालाना ग्वारपाठे का उत्पादन होता है।
एक किसान को ग्वारपाठा की खेती से लगभग 40 हजार रूपये प्रति हैक्टेयर लाभ हो जाता है। ग्वारपाठे की पत्तियों की तुड़ाई वर्ष में तीन से चार बार की जाती है। किसान को मण्डी अथवा बाजार में फसल ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। ग्वारपाठा के उत्पाद बनाने वाली फर्म अथवा इकाईयों से सम्पर्क करने पर उनके प्रतिनिधि खुद खेत पर आकर कटी पत्तियां खरीद ले जाते हैं। खेत में एक बार इसे उगाने के बाद इस पौधे का विस्तार होता रहता है।
मदर प्लांट्स (मातृ पौध) के पास डॉटर प्लांट्स (प्ररोह-छोटे पौधे) तैयार होते रहते हैं। किसान इन छोटे पौधों को बेच कर अतिरिक्त लाभ भी कमा सकते हैं। ग्वारपाठे के छोटे पौधों की पहली बार खेती करने वाले अथवा नर्सरी लगाने वाले खरीद कर ले जाते हैं। किसान को अपने खेत में ग्वारपाठे उगाने के लिए
छोटे पौधों को खरीदते समय इस बात की सावधानी रखनी चाहिए की प्ररोह 9 से 12 इंच का हो, इससे छोटे पौधे सस्ते तो मिल जाते हैं, लेकिन इन पौधों के विकसित होने से पहले ही उनके नष्ट होने का खतरा रहता है। ग्वारपाठे के छोटे पौधे एक से डेढ़ रूपघ् में मिल जाते हैं।
राजस्थान में ग्वारपाठा की खेती बीकानेर संभाग में सर्वाधिक होती है। इसके अलावा जोधपुर संभाग में भी कई गांवों में इसकी खेती की जा रही है। इस औषधीय पौधे की खेती के लिए राष्ट्रीय बागवानी मिशन प्रति हैक्टेयर 20 प्रतिशत का अनुदान 5 हैक्टेयर तक प्रदान करता है। उद्यान निदेशालय की एक रिपोर्ट के अनुसार एक हैक्टेयर पर ग्वारपाठा की खेती के लिए होने वाले 42500 रूपये के खर्च में से 8500 रूपये का अनुदान सरकार उपलब्ध कराती है। जोधपुर स्थिति केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान एकाजरी एवं जयपुर के समीप जोबनेर में कृषि अनुसंधान केन्द्र में ग्वारपाठे की खेती के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा जयपुर में कृषि पंत भवन में उद्यान निदेशालय से भी विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। आयुर्वेद में घृतकुमारी और स्थानीय बोलचाल में ग्वारपाठा के रूप को जानने वाले इस प्राचीन पौधे की औषधीय उत्पादों में खास उपादेयता है, जबकि सौन्दर्य प्रसाधान की सामग्री में यह ग्वारपाठा के रूप में लोकप्रिय है। हर्बल उत्पादों की वस्तुओं में ग्वारपाठा सबसे पहले पाया जाता है।
जोधपुर संभाग के जैसलमेर जिले के पोकरण, राजमथाई, डाबला, बांधेवा आदि गांवों में ग्वारपाठे की खेती का विस्तार हो रहा है। यहां होने वाला ग्वारपाठा तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से हरिद्वार भेजा जाता है। इसकी खेती करने वाले सागरमल, जोगराज एवं हाजी खां के अनुसार हरिद्वार स्थित आयुर्वेदिक औषधियां बनाने वाली एक कंपनी अपना वाहन लेकर यहां आती है तथा ग्वारपाठा खरीद कर ले जाती है।
जिले में 200 बीघा से अधिक भूमि पर इसकी खेती की जा रही है। इसके अतिरिक्त नागौर, अजमेर, सीकर, झुंझुनू घ्घ्घ् चुरू सहित राज्य के विभिन्न जिलों में इसकी खेती के प्रति किसानों में जागृति आयी है तथा किसान ग्वारपाठा की खेती से जुड़ने लगे हैं।
सीकर जिले के एक किसान को ग्वारपाठे का महत्व उस वक्त समझ में आयाए जब खेत-खलिहान में लगी आग से वहां बंधी भैंसे झुलस गई और उसके उपचार में ग्वारपाठा का गूदा रामबाण औषधि साबित हुआ।
पाली जिले के निमाज गांव के प्रगतिशील किसान श्री मदनलाल देवड़ा जिन्होंने अपने खेत पर ग्वारपाठा और आंवला उगाकर इसका मूल्यसंवर्धन तथा प्रसंस्करण करना शुरू कर दिया है, वे बताते हैं कि मैंने अपने खेत में आंवला एवं ग्वारपाठा की खेती को चुनौती के तौर पर लिया। आज मेरे खेत में साढ़े तीन हैक्टेयर में ग्वारपाठा उगा हुआ है। शुरू में लागत ज्यादा आती है, इसलिए किसान कतराता है। वहीं दूसरी ओर इसकी प्रक्रिया का कार्य करोड़पतियों के हाथ में होने से किसानों को उनकी ओर देखना पड़ता है। वे कहते हैं कि मुझे आज भी याद है कि मैंने चुरू में आंवले का ज्यूस चार बोतल से शुरू किया था। बीच-बीच में ऐसा भी लगा कि क्या मैं अपने उत्पाद बाजार में चला पाऊंगा ? लेकिन उत्पाद की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया तथा हौसला नहीं छोड़ा। आज मुझे इस बात की खुशी है कि दक्षिण भारत के बंगलुरू और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में मेरे द्वारा तैयार ग्वारपाठा एवं आंवला के रस ने दस्तक दे दी है और दो से ढाई लाख रूपये का रस हर माह वहां भेज रहा हूं। पाली जिले में इस समय 27 हैक्टेयर पर इसकी खेती की जा रही है। नागौर में भी कुछ काश्तकार इसकी खेती तथा फसलोत्तर कार्य में लगे हुये हैं।
इसकी खेती करने वाले काश्तकारों के अनुसार ग्वारपाठा का पौधा ऐसा पौधा है, जो थोड़ी .सी मेहनत के बाद बंजर भूमि में भी उग जाता है। इसे पशु, पक्षी तथा जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। राजस्थान के मरूस्थलीय इलाके में रासायनिक खादों का कम उपयोग होने से जैविक उत्पादन ज्यादा प्राप्त हो सकता है।
एक कृषि अधिकारी के मुताबिक राजस्थान में ग्वारपाठा के प्रसंस्करण कार्य में छोटी-बड़ी 20 से 30 इकाईयां लगी हुई हैं। ये इकाईयां बड़े उद्योगों की मांग के अनुरूप माल की आपूर्ति करती हैं। आने वाले समय में राजस्थान में व्यापक स्तर पर इसकी खेती की जा सकती है।
*स्वतंत्र पत्रकार
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