देव  पूजा प्रकरण – कुछ  नियम कुछ याद रखने की बातें भाग-1
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
हिन्दूओं में  पूजा , उपासना व साधना व्रत , उपवासादि विशेष महत्व रखते हैं । प्राय: सभी हिन्दू  किसी न किसी भांति देवी देवताओं के पूजन उपासना साधानादि अपने अपने देश काल एवं  परिस्थितियों के अनुसार भांति भांति से करते हैं, कई बार एक ही देव या देवी को  अनेक स्थानों पर अनेक नामों से पुकारा जाता है, लेकिन श्रद्धा वही, विश्वास वही  और फल भी वही रहता है । 
हालांकि  देव या देवी श्रद्धा और विश्वास के साथ पूणर् समर्पण के भूखे रहते हैं वे अपने  अत्यंत दीन व गरीब हीन भक्त सेकहीं अधिक प्रेम करते हैं बजाय अमीर एवं धनाढ़य  भक्तों के । इसका प्रमुख कारण है कि मनुष्य योनि के स्वभाव जन्य विकार धन, पद  या मान पाकर मानव में स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं और अहंकार, मद, लोभ, काम,  क्रोध या ईर्ष्या तथा भेद दृष्टि अर्थात जीवमात्र में अंतर या फर्क कर के देखना  जैसे दोष स्वत: उत्पन्न हो जाते हैं , जिनसे मुक्ति बेहद कठिन होती है । और  इनसे मुक्ति बगैर ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं होती । गरीब, दीन हीन के पास धन, पद  एवं मान की गरिमा नहीं होती अत: वह इन विकारों से लगभग मुक्त या शीघ्र मुक्त  होता है । 
श्रीमदभागवत  में जब महाराज परीक्षत ने शुकदेव जी से प्रश्न किया कि प्राय: भगवान शंकर के भक्त  बेहद अमीर, धनाढ़य सुख समृद्धि सम्पन्न होते हैं और श्री हरि विष्णु के भक्त  दिनों दिन गरीब और लाचार होते जाते हैं तथा दीन हीन होकर भारी कष्ट भोगते हैं तो  जवाब में श्रीशुकदेव जी आधा उत्तर स्वयं दिया और आधा उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण  व महाराज युधिष्ठर के बीच इसी प्रश्न को लेकर हुये संवाद को सुनाया । यह प्रसंग  इतना अधिक महत्वपूर्ण और उपयोगी है कि लगभग हर हिन्दू को यह प्रसंग ज्ञात व स्मरण  होना चाहिये । हम इस प्रसंग को नोट के रूप में फेसबुक पर पहले प्रकाशित कर चुके  हैं ।     
भगवान  श्रीकृष्ण ने गीता में काफी रहस्य वर्णन किये हैं और श्रीमद भागवत एवं श्रीमद  भगवदगीता के पाठन व पालन के बाद ही एक हिन्दू का जन्म होता है अन्यथा भले ही  किसी हिन्दू कुल में या घर में जन्म हुआ हो, मनुष्य हिन्दू नहीं होता, हिन्दू  होने के बाद उसके विधिसम्मत पूरे 15 संस्कार सही समय पर यथाविधि होना, उसे समस्त  शास्त्रों के ज्ञान से पारंगत और विवेकमय होना परम अनिवार्य है । अन्यथा किसी  मनुष्य को कदापि हिन्दू नहीं कहा जा सकता । 16 वां संस्कार अंतिम संस्कार होता  है जो मनुष्य की मृत्यु के उपरान्त किया जाता है । 
भगवान  श्रीकृष्ण ने गीता में काफी रहस्य वर्णन किये हैं – प्रभु  श्रीकृष्ण कहते  हैं 
सब कुछ  और सब कुछ छोड़ कर त्याग कर केवल और केवल मेरी शरण में आ, तब मुझे पायेगा – इसमें बड़ा रहस्य यह है कि सौ  फीसदी सब कुछ त्याग कर यानि एक फीसदी भी मनुष्य में आस निरास प्रयास और कयास  नहीं शेष नहीं रहे , वह एकदम अन्धा होकर पूर्ण विश्वास से पूर्ण श्रद्धा व तन्मयता  से उसे पुकारेगा फिर करिश्मा होगा वह प्रभु खुद दौड़ता हुआ उसके पास आयेगा । इस  रहस्य को या तो लोग समझ नहीं पाते या इसका पालन नहीं कर पाते, और कहीं न कहीं  अपनी श्रद्धा व भर्क्ति में अंशमात्र ही सही खोट रखे रहते हैं , उन्हें प्रभु की  प्राप्ति तमाम आडम्बरों और वर्षो तक साधना पूजा उपासना के बाद भी नहीं हो पाती ।  क्योंकि वे सौ फीसदी नहीं त्याग पाते और प्रभु एक फीसदी भी उनके पास नहीं आते ,  श्रीमद भगवद गीता के इस रहस्यमयी श्लोक में भगवान ने खुद को पाने की शर्त नहीं  रखी बल्कि विशुद्ध तरीका एकदम खोल कर बताया है । फिर आगे जाकर प्रभु ने कहा – पत्रं पुष्पं फलं तोयं ... इसमें  अपनी प्रिय वस्तुओं के नाम बता दिये और अमीरों के करोड़ों के चढ़ावों और ढोंग  घतरों तथा मोहन भोग , छत्तीस प्रकार के व्यंजनों को लतिया दिया .... ठेगा दिखा  कर श्रीकृष्ण कहते हैं ... नहीं चाहिये ... अटरम शटरम .. लात मार और ले जा वापस  ... हम तो प्रेम करने वाले , हमसे प्रीत रखने वाले गरीब के हाथ से पत्ते, फूल और  फल खा कर खाली पानी पीते हैं, हम उसके द्वारा अर्पित पत्ते, फूल और फल साकार सगुण  रूप से प्रकट होकर प्रीत सहित खाते र्हैं और ठण्डा पानी पीते हैं , हममें श्रद्धा  और विश्वास प्रेम और प्रीत ला पहले, फिर हमें सूखे रूखे घास और पत्ते खिला , हम  आ जायेगें और प्रेम से खा जायेगें ।   श्रीमद भगवद गीता का यह श्लोक भी काफी रहस्यमय है जो भगवान खुद आडम्बर  का विरोध करते हैं और प्रेम प्रीत श्रद्धा और विश्वास को सर्वोच्च स्थान देकर  मोहन भोगों और करोड़ों के चढ़ावों को लतिया देते हैं । 
एक  प्रसंग बहुत सुन्दर है , सच्चा र्है समयाकूल है उल्लेखनीय है – दक्षिण भारत में भगवान श्रीकृष्ण  जी का बेहद प्रसिद्ध एक मन्दिर है , पहले वहॉं प्रभु श्रीकृष्ण साक्षात मंदिर में  विराजमान एवं उपस्थित होकर भक्तों का कल्याण एवं दर्शन करते थे, मंदिर की कुछ  समय उपरान्त काफी ख्याति हो गयी । वहॉं अमीरों और पद प्रभावशाली लोगों के हुजूम  के हुजूम पहुँचने लगे , अमीरो के ऊंचे चढ़ावे और धन दौलत पद प्रभाव की चमक में  मंदिर के सेवक और पुजारी भी आ गये और उनकी नजर में प्रभु की चमक अमीरों के ऐश्वर्य  की उस चमक के सामने फीकी पड़ गई , वे प्रभु प्रतिमा को गरिमा न देकर अमीरों की  प्रधान सुश्रूषा करने लगे , गरीब भक्तो को अपमानित किया जाने लगा, तिरस्कार  पूर्वक उन्हें प्रभु के दर्शनों से वंचित किया जाने लगा । प्रभु के गरीब दीन हीन  भक्त घण्टों तक कतारों में रहते, किसी को बगली से कभी कभर उझक उझकू कर यदा कदा  दर्शन हो पाते किसी किसी को या अनेकों को प्रभु दर्शन ही नहीं होते । जो अमीर  जितनी मोटा धन देता उसे उतनी प्राथमिकता से सीधे प्रभु प्रतिमा के सामने ले जा कर  उसे मन भर कर प्रभु के दर्शन भी कराये जाते और पुजारी स्वयं अमीर व धनाढय के लिये  पूजा , जप तप व अनुष्ठान आदि कर्म करते । पुजारी सोचते कि प्रभु तो प्रतिमा में  घुसा बैठा है, उस प्रतिमा से परे हम क्या गुल खिला रहे हैं उसे क्या पता , उसे  तो सिर्फ भक्तों से और उनके कल्याण से मतलब है तो भक्त हम दे ही रहे हैं ,  निरन्तर उसके सामने पेश कर रहे हैं । प्रभु के पास करोड़ों की माया देकर जाने  वाले भक्त प्रभु को ऐश्वर्य शाली और मंदिर को वैभवशाली बना रहे हैं ... वाह  गोपाल जी वाह ..आनन्द ही आनन्द है । 
उधर  प्रभु श्रीकृष्ण यह सब देख कर चिन्तित और व्यथित हो गये, वह वहॉं देख रहे थे  जहॉं प्रतिमा नहीं थी, वह वहॉं व्याप्त थे जहॉं उनकी प्रतिमा नहीं थी । एक दिन  बेहद गरीब दीन हीन , फटे चिथड़े पहने एक अत्यंत कमजोर वृद्ध उस मंदिर में प्रभु  दर्शन को पहुँचा , काफी देर धूप में कतार में रहने से और फिर भी मंदिर तक न पहुंच  पाने से वृद्ध की हालत बिगड़ गई और बीमार होकर थक कर चूर हो वह कतार से बाहर निकल  कर, मंदिर से दूर खड़े एक पेड़ के नीचे बैठ कर सुस्ताने लगा, वह गर्मी से बेहाल  प्यास से परेशान और अंदर से बेहद दुखी था । उसे अपने शारीरिक कष्ट से अधिक प्रभु  दर्शन न हो पाने का मलाल रह रह कर उसकी ऑंखों से आसूओं की बौछारें करने लगता, वह  तड़प तड़प कर बार बार श्री हरि का स्मरण करता और बेहद करूण पुकार से अंदर ही अंदर  पुकारता कि प्रभु दर्शन तो दे ही देते , बड़ी दूर से आस लेकर आया था । अब जीवन का  अंतिम काल है पता नहीं कब ये शरीर साथ छोड़ दे, एक बार तो मिल लेते प्रभु । यह सब  करते व्यथित और बीमार वृद्ध को शीतल हवा के झोंके लगे और उसे झपकी आ गई , तभी  अचानक उसके कानों में आवाज आयी और उसके कन्धे पकड़ कर किसी ने झिंझोड़ा , वृद्ध  की नींद टूट गई , उसने देखा कि एक बेहद गरीब आदमी फटे कपड़ों में उसके निकट बैठा  उसे जगा जगा कर पुकार रहा है, उसके हाथ में तुम्बी के कमण्डलु में जल भरा है ,  उसने वृद्ध से पूछा कि जल पीना है । वृद्ध ने कहॉं हॉं , प्यास तो बहुत देर से  लगी है लेकिन भगवान को याद करते प्यास का ख्याल ही नहीं रहा । तब उस आदमी ने उसे  शीतल जल पिलाया, वृद्ध को भारी राहत महसूस हुयी । उस गरीब आदमी ने उससे यानि वृद्ध  से उसके वहॉं आने का प्रयोजन व मंतव्य पूछा , वृद्ध अत्यंत दुखी होकर बोला बहुत  दूर से शरीर के साथ न देने पर भी प्रभु दर्शन को आया था पर प्रभु के द्वारपालों ने  भगा दिया, कतार में लगा दिया , वहॉं मैं बेहाल और बीमार हो गया सो विश्राम के लिये  यहॉं आ बैठा , अब थोड़ा विश्राम कर फिर से कतार में लगूंगा । लेकिन भाई तुम कौन हो  और कहॉं से आये हो , क्या तुम भी प्रभु दर्शन को आये हो , क्या तुम भी कतार में  लग कर आये हो या कतार में लगने जा रहे हो । 
वृद्ध  की इस प्रकार की बातें और सवाल सुन कर वह फटेहाल गरीब खिलखिला कर हँस पड़ा और  वृद्ध से बोला , अरे नहीं मैं प्रभु दर्शन को नहीं आया, मैं तो भक्त दर्शन को आया  हूं । यह सुन कर वृद्ध असमंजस में पड़ गया और बोला क्या मतलब, मैं कुछ समझा नहीं  , तुम प्रभु दर्शन को नहीं आये भक्त दर्शन को आये हो, तो जाओ जाकर कतार के दर्शन  कर लो या फिर मंदिर के गर्भगृह में पुजारी पूजा करवा रहे होंगें उन भक्तो के  दर्शन कर आओ , प्रभु के दर्शन से अधिक फलदायी दर्शन उन अमीर भक्तों के रहेंगें ।  वह गरीब फटेहाल मुस्कराया और कहा, कतार के दर्शन तो नित्य करता हूं , लेकिन गर्भ  गृह में बैठे भक्तों के दर्शन नहीं कर पाता । वृद्ध ने कहा कि ऐसा क्यों, तब वह  गरीब फटेहाल बोला कि असल बात ये है कि मैं ही वह हूं जिसके दर्शन को तुम यहॉं आये  हो और यह कतार जो लगी है । वृद्ध बड़ी जोर से हँसा और बोला कि मैं तो प्रभु  श्रीकृष्ण के दर्शन को आया हूं , क्या तुम प्रभु श्रीकृष्ण हो । फटेहाल गरीब ने  कहा, हॉं मैं ही श्रीकृष्ण हूं , मुझे इन पुजारियों ने और द्वारापालों ने मुझे  वहॉं कैद कर दिया, मुझे मेरे भक्तों से मिलने से रोक दिया, तो मैं वहॉं से भाग  आया और अब अपने भक्तों के दर्शन यहीं बाहर ही करता हूं । वृद्ध ने कहा कमाल है ,  तो अंदर जो प्रतिमा है उसमें श्रीकृष्ण नहीं है क्या । फटेहाल गरीब ने कहा ,  नहीं वहॉं केवल प्रतिमा है , उसमें मैं नहीं हूं , मैं तो उस प्रतिमा और मंदिर  दोनों से बाहर आ गया हूं । मैं भाग आया , बिल्कुल उसी तरह जैसे कंस के कैदखाने से  जन्म लेते ही निकल भागा था । वृद्ध ने कहा तो क्या तुम मुझे अपने चतुर्भुज रूप  के रूप के दर्शन करा सकते हो, उस फटेहाल गरीब ने कहा हॉं , और उसने स्वयं को  चतर्भुज स्वरूप में वृद्ध को वहीं दर्शन देकर उसका कल्याण किया ।  
इससे  आगे तीन प्रसंग हैं जो स्वयं मेरे साथ श्री गोवर्धन गिरिराज की परिक्रमा के दौरान  घटित हुये लगभग उपरोक्त घटनाक्रम जैसे हूबहू हैं, जिनका वर्णन व्यक्तिगत कारणों  से मैं उचित नहीं समझता । मैं स्वयं इस प्रकार के घटनाक्रमों से गुजरा हुआ हूं बस  संकेत के लिये इतना ही कहना काफी है । 
एक  प्रसंग एक जज साहब की अदालत का है यह किस्सा ग्वालियर जिले का है, घटना एकदम सच्ची  है, लेकिन बहुत मशहूर है । एक जज साहब जो कि जाति के ब्राह्मण थे लेकिन भगवान और  पूजा पाठ में कतई यकीन नहीं करते थे, उनकी अदालत में एक बार बड़ा विचित्र केस आया  । एक बेहद नित्य भूखों मरने वाले गरीब किसान पर उसी के गॉंव के एक सेठ ने नालिश  कर दी यानि धन वसूली का मुकदमा कर दिया । सेठ का कहना था कि निहोरेलाल ने उससे 11  रूपये का कर्जा लिया (उस जामाने में 11 रूपये हजारों लाखों रूपये की अहमियत रखते  थे ) जिसे उसे एक बरस बाद चुकाना था लेकिन अब दो बरस बीत जाने के बाद भी वह पैसा  नहीं चुका रहा है, लिहाजा इससे पैसा वापस दिलाया जाये और ब्याज भी दिलायी जाये ।  गरीब किसान निहोरे लाल एकदम अनपढ़ और भोला भाला सीधा सच्चा सर्वथा गंवार इंसान था  । उसे अदालत का समन जारी किया गया और तलब ए अदालत किया गया । उस समय देश में राजा  महाराजा का समय था , अंग्रेजी हुकूमत थी जिसमें ग्वालियर के राजा ने अपनी अदालतें  और जज बना रखे थे, उसी अदालत में यह मुकदमा चलाया गया । 
अदालत  का समन मिलते ही गरीब किसान निहोरेलाल घबरा गया और सबेरे मुँह अंधेरे ही जाकर  अदालत की चौखट पर जाकर माथा टेक कर बैठ गया । दस बजे के बाद जब अदालत शुरू हुयी तो  शाम तक निहोरे लाल का केस नंबर पर आया, उसका नाम पुकारा गया , वह दौड़ता हुआ गया  और अदालत में दण्डवत हो कर महाराज की जय हो , महाराज की जय हो बोलने लगा । जज  साहब को उसे ऐसा करते देख क्रोध आ गया और जज साहब ने संतरियों को कहा, यह अदालत का  अनुशासन भंग कर रहा है, इसे पकड़ कर मुजरिम के कठघरे में बांध कर खड़ा करो । निहोरे  लाल को मुजरिम के कठघरे में बांध कर खड़ा कर दिया गया, वकीलों ने जिरह शुरू की,  निहोरे लाल से पूछा कि तुमने सेठ जी से 11 रूपये कर्जा लिया था क्या, निहोरे लाल  ने मासूमियत से कहा कि हॉं हुजूर लिया था । वकील ने आगे कहा कि वह तुम्हें कब  वापस करना था, निहोरे लाल ने कहा कि , एक बरस बाद हुजूर । वकील ने कहा कि लेकिन  दो बरस बीतने के बाद भी तुमने उनका पैसा वापस नहीं किया , इस पर निहोरे लाल बोला ,  हुजूर मैंने तो बरस पूरा होते ही बरस के आखरी दिन उनका पूरा रूपया ब्याज सहित  चुका दिया । सेठ जी ने मुझ पर अंगूठा लगवा कर रसीद भी लिखी । वकील ने कहा तुम झूठ  बोलते हो निहोरे लाल, तुमने पैसा वापस नहीं किया और सेठ जी ने कोई रसीद नहीं लिखी  , अगर लिखी है तो वह रसीद कहॉं है , लाओ पेश करो । 
निहोरे  लाल ने कहा कि हुजूर रसीद तो सेठजी ने ही खुद ही रख ली थी, मुझसे कहा था कि मैं  अनपढ़ उस रसीद का क्या करूंगा, मैं ही इसे संभाल कर रखूंगा, सो मैंनें रसीद सेठजी  के पास ही छोड़ दी थी, उन्हीं के पास होगी । वकील ने आगे कहा कि जब तुमने सेठ जी  के पैसे वापस दिये उस समय का कोई गवाह है तुम्हारे पास , जो कह सके कि हॉं तुमने  पैसे वापस किये । निहोरे लाल बोला गोपाल जी जानें , वकील ने जज को मुस्कुराते  हुये गवाह का नाम नोट करने की गुजारिश की, और निहोरे लाल से पूछा कि उसे रसीद  लिखने की भी जानकारी होगी, निहोरेलाल ने कहा हॉं यह भी गोपाल जी जानें । इसी बीच  सेठ जी ने अदालत को कहा कि उनके पास निहोरेलाल की कोई रसीद नहीं है और उन्हें ध्यान  नहीं कि निहोरेलाल के लिये ऐसी कोई रसीद उन्होंने कभी लिखी हो । इस पर फिर  निहोरेलाल ने जवाब दिया , गोपाल जी जानें । 
जज साहब  के दिमाग में बैठ गया कि कोई गोपाल जी नामक आदमी है जो मामले का महत्वपूर्ण गवाह  है जिसे असलियत की जानकारी होगी । सेठ जी से पूछा गया कि ये गोपाल जी कौन है , सेठ  जी ने कहा , मैं नहीं जानता इस नाम के किसी आदमी को । अदालत ने इसके बाद गोपाल जी  नाम के आदमी के नाम समन जारी कर दिये और अदालत की अगली तारीख पर गोपाल जी की पेशी  लगा दी यी । 
गॉंव  में अदालत का कारिन्दा समन तामील कराने पहुंचा उसने पूरे गॉंव में गोपाल जी की  तलाश की लेकिन उसे गोपाल जी नाम का कोई आदमी वहॉं नहीं मिला । तब उसे किसी ने  बताया कि गॉंव के बाहर बगीचे में एक गोपाल जी का मंदिर जरूर बना है, वहॉं देख लो  शायद गोपाल जी वहॉं रहता हो । अदालत का कारिन्दा गोपाल जी के मंदिर पर पहुँचा,  वहॉं उसे कोई नहीं मिला, अंदर कन्हैया जी की प्रतिमा थी, उसने प्रतिमा के दर्शन  किये और जज के गुस्से से बचने को कन्हैया जी से प्रार्थना की और कहा कि मेरी  नौकरी और मेरी जान बचाना भगवन , ले इस समन को तेरे पास ही छोड़ देता हूं, गोपाल जी  तो मिला नहीं पर मैं तेरी शरण में हूं । यह विचार कर और निवेदन करके उसने समन को  मंदिर पर चस्पा कर दिया । 
अदालत  की अगली पेशी की तारीख आयी, निहोरेलाल का कस नंबर पर आया, पुकार लगायी गयी, गोपाल  जी हाजिर हो .... तीन पुकारों के बाद भे कोई नहीं आया तो जज ने निहोरे लाल से कहा  कि तुम्हारा गवाह तो अब तक नहीं आया, क्यों नहीं मुकदमें का फैसला तजवीज कर दें  , निहोरे लाल फिर बोला गोपाल जी जानें, तब सेठ के वकील ने ठहाका लगाते हुये कहा कि  हुजूर एक मौका और इसे दीजिये फिर पुकार लगवा दीजिये , फैसला तो शाम तक हो ही  जायेगा । जज ने कहा ठीक है, फिर से गोपाल जी के नाम की पुकार लगायी गई तब एक अत्यंत  गरीब आदमी एकदम निहोरेलाल जैसी वेषभूषा में अदालत में हाजिर हुआ और बोला हुजूर मैं  हाजिर हूं । वकील ने कहा कि क्या तुम्हारा नाम गोपाल जी है , तब उस हाजिर गरीब  ने कहॉं हॉं हुजूर मेरा नाम ही गोपाल जी है, वकील ने हा कहॉं रहते हो, तब उसने  जवाब दिया हुजूर उसी गॉंव में रहता हूं गॉंव के बाहर बगीचे में जो मंदिर बना है  उसी में रहता हूं । वकील ने पूछा कि क्या तुम्हारे सामने निहोरेलाल ने सेठजी के  11 रूपये साल के आखरी दिन ब्याज सहित चुकता किये थे। गोपाल जी बोला हॉं हुजूर  मेरे सामने ही निहोरे लाल ने सेठजी के 11 रूपये सूद सहित चुकता किये थे । वकील ने  कहा कि क्या सेठ जी ने कोई रसीद लिखी थी , गोपाल जी बोला हॉं लिखी थी, और खुद सेठ  जी ने ही वह रसीद रख ली थी । वकील ने कहा तो अब वह रसीद मिल क्यों नहीं रही, क्या  तुम्हें पता है कि वह रसीद सेठ जी ने कहॉं रखी थी । गोपाल जी ने कहा , हॉं हुजूर  सेठजी ने वह रसीद ऊपर जाकर सेठानी के कमरे में टंगे एक छींके में घी के मटके के  नीचे रखी थी, वह रसीद अब भी वहीं रखी है , सेठ जी उसे रख कर भूल गये हैं । यह कह  कर अपनी गवाही देकर गोपाल जी वहॉं से चला गया । बाद में सेठ जी को उसी छींके में  वह रसीद मिल गई और उन्होंने अदालत को वह रसीद दिखा कर मुकदमा वापिस लेने की  गुजारिश की । सेठ जी को नंगे पॉंव और ऑंखों में आंसूओ की धार देख कर जज ने सेठ जी  से पूछा कि सेठजी यह पागलों जैसा हुलिया क्यों कर रखा है आज न आपने उजले वस्त्र  पहने है और न पावों में कुछ पहना है और रोये चले जा रहे हैं , मुकदमा तो खैर खारिज  कर दिया जायेगा लेकिन ये क्या वजह हुयी है जिससे आपका यह हाल हो गया है । सेठ भरी  अदालत में फफक कर रो पड़ा और बोला हुजूर गोपाल जी खुद यहॉं आये थे । जज ने कहा कौन  वो गवाह , सेठ जी ने कहा हॉं । हुजूर जब मैं वापस गया तो मैंने सबसे पहले वह रसीद  खोजी, जो मुझे वहीं रखी मिली जहॉं गोपाल जी ने बताई थी । फिर मेरा ध्यान गया कि  लेकिन यहॉं तो सेठानी के कमरे तक कोई आता जाता नहीं फिर इस गोपाल जी को कैसे पता  चला कि रसीद सेठानी के कमरे में छींके में रखी गयी थी जो अब तक वहीं थी । मैं दौड़  कर बगीचे के मंदिर में पहुँचा लेकिन वहॉं कोई नहीं मिला, लेकिन मंदिर पर गोपाल जी  के नाम अदालत का समन तामील कर चस्पा मिला तो मैं सब समझ गया और मैंने मंदिर में  प्रभु के चरण पकड़ लिये और तब से मेरा यह हाल है , हुजूर मैंने प्रभु को कष्ट दे  दिया, उन्हें अदालत तक बुलवा दिया, अब सारा धन देकर भी मैं इस पीड़ा से नहीं निकल  सकता । जज साहब सेठ जी की बातें सुन कर अवाक रह गये, उन्होंने तामील कराने वाले  कारिन्दे को तलब किया, कारिन्दे ने डरते कांपते सारी कहानी बयान कर दी । जज साहब  ने उसी वक्त तत्काल उस मुकदमें को खारिज किया और तुरन्त उसी क्षण अपनी नौकरी से  इस्तीफा दिया और सब कुछ त्याग कर एकदम पागल और बेसुध होकर वे भी उसी बगीचे के  मंदिर में अपने पूरे जीवन काल तक गोपाल जी की सेवा सुश्रूषा में लगे रहे, वहीं सेठ  जी भी सब त्याग कर अपना पूरा जीवन उसी मंदिर पर पड़े रह कर गोपाल जी की सेवा में  ही गुजारते रहे ।
क्रमश: जारी अगले अंक में .... 
                                                                       
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