मकबूल पर फिदा है हिंदुस्तान
राकेश अचल
(लेखक ग्वालियर चम्बल के वरिष्ठ एवं विख्यात पत्रकार हैं )
मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन फिर चर्चा में है इस बार चर्चा की वजह हुसैन का ब्रश नही बल्कि उन्हे कतर गणराज्य की ओर से पेश की गई नागरिकता है।
95 वर्ष के मकबूल फिदा हुसैन भारत मे जन्मे है। उनके कैनवास पर सातो रंग पूरी शिद्दत के साथ सांस लेते है। मकबूल साहब अपनी मौलिकता की वजह से सदैव विवादो में रहते है। कभी विवाद की जड़ उनका अपना सौदंर्यबोध होता है, तो कभी भारतीय मान्यताओं, आस्थाओं को लेकर उकेरी गई आकृतियां।
मकबूल फिदा हूसैन वर्षो से पेरिस में रह रहे है। भारत के कट्टरवादी हिंदू संगठन कई बार मकबूल साहब को कबूल करने के बजाय उन्हे नकार चुके है। उनके पुतले जला चुके है, गिरफ्तार की मांग कर चुके है। मकबूल फिदा हुसैन पर आरोप है उन्हे हिंदू देवी देवताओ की आपत्जिनक आकृतियां बनाकर उनका मजाक उडाया।
मकबूल साहब जिस मजहब से ताल्लुक रखते है, उसमें बुतपरस्ती की साफ मुमानियत है। बावजूद इसके मकबूल फिदा हुसैन ने अपनी पूरी उम्र कागजो पर बुत बनाने में खर्च कर दी। कभी उनके बुश से पशु-पक्षी जीवित हुए तो कभी जीवन की जटिल जाएं। कभी उन्होने नारी सौदंर्य को गजगमिनी बनाकर उकेरा तो कभी भारतीय देवी देवताओं की नृत्य करती मुद्राएं। इस पर मकबूल का विरोध करने वालो से पूछा जाना चाहिए कि क्या कोई व्यक्ति भारतीय दर्शन को समझे बिना यह सब कर सकता है?
मकबूल फिदा हुसैन अगर अश्लील होते, असामान्य होते, अराजक होते तो क्या दुनिया उनकी कृतियों को हीरे-जवाहरात की कीमत पर खरीदती? शायद नहीं। लेकिन मकबूल के हर केनवास की कीमत है। यह कीमत ही साबित करती है कि मकबूल के हर रंग में इंसानियत की जिंदगी पर फिदा होने की ताकत देने का माद्दा है।
जिंदगी को अपने ठंग से जीने वाले इस महान और सर्वकालिक कलाकार पर पूरा देश गर्व करता है। मकबूल साहब पूरी दुनियां में भारतीय कला का प्रतिनिधित्व करते है। कला के माध्यम से जीवन मूल्यो को समझने परखने की अंर्तदृष्टि किसी भी कट्टरपंथी के पास नही होती। अगर होती तो मकबूल फिदा हुसैन को गरियाया नहीं जाता। धमकाया नही जाता।
भारत में फिलहाल दोहरी नागरिकता का प्रावधान नही है। इसलिए मकबूल साहब के लिए कतर की नागरिकता कबूल करना उचित नही है। वे अपनी सरजमीन पर आकर सुकून से रह सकते है। यह मुल्क उनका अपना है, वे मुल्क के अपने है।
जो लोग मकबूल फिदा हुसैन को जानते है उन्हे पता है कि वे आम हिंदुस्तानी से कहीं ज्यादा समर्पित हिंदुस्तानी है। उन्होने एक बार भी ऐसा नहीं कहा कि वे अपनी जन्मभूमि से मुक्ति चाहते है। उनका पेरिस में रहकर काम करना कोई अजूबा नही है पेरिस दुनियां के तमाम मकबूल कलाकारों की कर्मस्थली रही है। पेरिस में होने का मतलब यह कतई नहीं होता कि वहा रहने वाले दूसरे मुल्को के लोग अपना वतन भूल गए।
मकबूल फिदा हूसैन पर हम भारतवासियों को उसी तरह गर्व है, जिस तरह कि हरगोविंद खुराना पर है, अर्मत्य सेन पर है, मदर टैरेसा पर है। इन सबकी वजह से दुनियां में हिंदुस्तान का मान बढा है। दुनिया से मकबूल की कद्र उनकी कूची की वजह से तो ही है, लेकिन एक उम्दा हिंदुस्तानी होने के नाते भी है।
मकबूल साहब को कतर की पेशकश की वजह से एक बार फिर राजनीति में घसीटा जा रहा है, लेकिन ऐसा करने वालो को नही पता मकबूल को मशहूर करने वाली कोई राजनीतिक पार्टी या खानदान नही है। मकबूल अपनी कला की दम पर मशहूर और दुनिया भर में कबूल किए गए है। इसलिए उन्हे मशविरा देने या कोसने का हक किसी भी राजनीतिक दल को नही है। (भावार्थ)
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