बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

खामोशी के साथ गुजर गई 29 जनवरी

खामोशी के साथ गुजर गई 29 जनवरी
याहू हिन्‍दी से साभार
नई दिल्ली [वंदना मिश्र]। 29 जनवरी खामोशी के साथ गुजर गई। सबकी खबर लेने वाले अखबारों ने इस मौके पर अपनी खबर ली, ऐसा कोई समाचार दिखाई नहीं पड़ा जबकि यह दिन [भारतीय पत्रकारिता दिवस] दो सौ सत्ताइस साल के अपने इतिहास पर नजर डालते हुए अपनी प्रगति और कमियों का लेखा-जोखा करने, आत्मालोचना करने का दिन हो सकता था।
29 जनवरी 1780 को भारत में पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी। जेम्स आगस्टस हिकी ने इसी दिन कलकत्ता से 'बंगाल गजट' नामक अखबार निकाल कर भारत में पत्रकारिता की नींव डाली थी। 'बंगाल गजट' का नाम बाद में बदल कर उन्होंने 'ओरियंटल कलकत्ता जनरल एडवार्टाइजर' कर दिया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के कुकृत्यों का पर्दाफाश करने के कारण यह साप्ताहिक कंपनी के अधिकारियों की परेशानी का सबब बना रहा और अंततोगत्वा वारेन हेस्टिंग्स के आदेश पर हिकी को वापस इंग्लैंड भेज दिया गया। 1780 से शुरू भारतीय पत्रकारिता प्रतिकूल माहौल और परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी जड़ें मजबूत करती रही और जनता का समर्थन पाकर पुष्पित-पल्लवित होती रही। एक विदेशी शासन के दौर में जन्मी भारतीय पत्रकारिता ने प्रारंभ से ही अन्याय को बेनकाब करने, उसका विरोध करने और इस लड़ाई में जनता को अपने साथ लेने, उसे जगाने को अपना परम कर्तव्य माना।
भाषाई पत्रकारिता के जनक राजा राममोहन राम ने 1821 में 'संवाद कौमुदी' और 'मिशतुल अखबार' निकाले। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भाषाई अखबारों की भूमिका जबरदस्त रही। पयामे आजादी, दिल्ली उर्दू अखबार, सिराजुल अखबार, समाचार सुधावर्षण आदि ने आजादी की लड़ाई में अपने योगदान की कीमत अपने संपादकों के मृत्युदंड से लेकर अखबार की जब्ती, प्रेस को जलाये जाने आदि तमाम तरह की सजाएं बखुशी झेल कर अदा की।
तबसे भारतीय पत्रकारिता एक लंबा सफर तय कर चुकी है। उसका रूप तो बदला ही है कदाचित आत्मा भी। यहां तक कि अब उसने अपना नाम भी बदल लिया है। पत्रकारिता के नाम पर फख्र करने वाला यह काम अब मीडिया नाम से जाना जाने लगा है। मुद्रित अखबार प्रिंट मीडिया और रेडिया, टीवी वगैरह इलेक्ट्रानिक मीडिया कहलाने लगे हैं [विज्ञापन विभाग तो खैर पहले से ही मीडिया था]। अब कंप्यूटर के जमाने में पत्रकारिता इंटरनेट पर भी पहुंच गई है और वेब, आन लाइन पत्रकारिता कहलाने लगी है।
पुरानी पीढ़ी के पत्रकारों को तभी अटपटा लगा था जब पत्रकारिता विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थानों में पढ़ाई जाने लगी थी और पत्रकारिता पढ़ाने वाले विभागों को पत्रकारिता विभाग के बजाय संचार विभाग या जनसंचार विभाग कहा जाने लगा था। उन्हें यह जानकर और हैरत होगी कि अमेरिका में अब इन विभागों को संचार या जनसंचार विभाग से आगे बढ़कर दूरसंचार विभाग कहा जाने लगा है और अब पत्रकारिता पढ़ने के लिए संचार के सिद्धांत पढ़ने भी जरूरी हो गए हैं। संचार क्रांति के दौर में जब दुनिया एक गांव में तब्दील हो गई है [बकौल मार्शल मैक्लुहान] और संचार के क्षेत्र में हर दिन कोई उपलब्धि हासिल कर ली जाती है पत्रकारिता भी बदली है।
मिशन से मीडिया बनने के दौर में पत्रकारिता का रूप रंग तो बदला ही है उसके हथियार और औजार भी बदले हैं। संचार क्रांति की बदौलत ही अब उसके पास ऐसे छोटे कारगर कैमरे और टेपरिकार्डर हैं जिनसे आज का पत्रकार [या मीडियाकर्मी?] सत्ता की सतर्क निगाहों को धता बता स्टिंग आपरेशन करने में समर्थ है [हालांकि इसका दुरुपयोग भी हो रहा है]। इंटरनेट पर उसे पूरी आजादी हासिल है। इंटरनेट पर एक आम नागरिक [हालांकि वह आम कैसे हुआ जबकि भारत की केवल चार प्रतिशत आबादी ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर पाती है और इनमें वे शामिल है जिनके पास अपना कम्प्यूटर नहीं है, जिन्हें इंटरनेट के लिए साइबर कैफे जाना पड़ता है] भी अब पत्रकार की भूमिका ग्रहण कर सकता है और संपादक के अनुशासन या अखबार की रीति नीति से परे जाकर किसी घटना को जैसे उसने देखा, जाना और उसका जो अर्थ वह समझता है उस रूप में वेब पर या ब्लाग पर पोस्ट कर सकता है। पत्रकारिता का नया रूप ब्लॉग आजकल इंटरनेट पर जाने वालों के बीच काफी लोकप्रिय है क्योंकि इस दुनिया में लोकतंत्र अपने पूरे विस्तार और उदारता में मौजूद है। आप किसी भी खबर में कुछ जोड़ सकते हैं, अपनी टिप्पणी कर सकते हैं, अपना विश्लेषण दे सकते हैं।
इक्कीसवीं सदी में ही लोकप्रिय हुई है एक और किस्म की पत्रकारिता जिसे नाम मिला है नागरिक पत्रकारिता [सिटीजन जर्नलिज्म] जिसके तहत कोई आम नागरिक [जो पेशे से पत्रकार नहीं है] किसी घटना के तथ्यों का संकलन करने, उनकी रिपोर्ट लिखने, घटना का विश्लेषण करने के नाम में सक्रिय भूमिका निभाता है यानी पेशेवर पत्रकार का काम करता है। बेनजीर मृत्यु के मामले में नागरिक पत्रकारिता के हस्तक्षेप से ही सरकारी पक्ष पर प्रश्नचिह्न लगा था। यह नागरिक पत्रकार था वह जिसने अपने मोबाइल पर हवा में पिस्तौल ताने एक व्यक्ति की तस्वीर कैद कर ली थी। इसी तस्वीर ने पाकिस्तान सरकार की उस कहानी को धराशायी कर दिया था जिसके मुताबिक बेनजीर की मृत्यु अपने वाहन के सनरूफ से सिर टकरा जाने के कारण हुई थी। दिसंबर 2004 में सुनामी की प्रचंडता को दुनिया भर में पहुंचाने का शुरुआती काम भी पेशेवर पत्रकारों ने नहीं ऐसे ही नागरिक पत्रकारों ने किया था। ये नागरिक पत्रकार थे इंडोनेशिया, थाईलैंड में समुद्र किनारे छुट्टियां बिताने गए पर्यटक और वहां के स्थानीय लोग। लंदन में हुए बम विस्फोटों की कहानी और तस्वीरें भी पूरी दुनिया तक ऐसे ही नागरिक पत्रकारों की पहलकदमी के कारण पहुंच सकी थी। पेशेवर पत्रकारिता को पत्रकारिता के इन नए रूपों पर एतराज है।
वह इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाती है, इनकी निष्ठा को कठघरे में खड़ा करती है। नागरिक पत्रकारिता और ब्लाग पत्रकारिता इस सबसे बेपरवाह मैदान में डटी है। बेहतर हो पेशेवर पत्रकारिता इनसे मिली चुनौतियां स्वीकारे और खुद को झकझोर कर कुछ अधिक चुस्त-दुरुस्त बनाए। बेशक भारतीय पत्रकारिता ने 227 वर्षो के दौर में बहुत तरक्की की है खासकर भाषाई अखबारों ने लेकिन वे खेती और कुटीर उद्योगों की तथा समाज के हाशियों पर पड़े तबकों की अनदेखी करते हैं इस शिकायत को दूर करने के लिए क्या वे अब कोई ठोस कदम उठाएंगे?

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