विशेष आलेख: आटिज्म: शीघ्र हस्तक्षेप जरूरी – श्रीमती राजबाला अरोरा 
आलेख - राजबाला अरोरा
लेखिका ग्वालियर की विख्यात  समाज सेविका हैं  
        अ ' एक 6 साल की बच्ची है । केवल माँ पापा बोलने के अलावा  कुछ नहीं बोलती है । ऑंख से ऑंख नहीं मिला पाती है । खड़े - खड़े हिलती रहती है अचानक  किलकारी मार कर हँस पड़ती है लेकिन कभी कभी अचानक माँ या अन्य को काट लेती है । किसी  चीज की इच्छा होने पर इशारा भी नहीं करती फिलहाल रिहैबिलिटेशन सेंटर पर उसके व्यवहार  को नियन्त्रित करने की थेरैपी लेरही है ।
 'ब  ' एक  आठ साल का डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चा है । ममा, पापा, दादी के अलावा कुछ नहीं बोलता। पानी के लिए फ्रिज  के पास खड़ा हो जाता है । लम्बे समय से स्कूल में मंदबुद्वि बालक समझ कर उसे ए बी सी  पढ़ना लिखना सिखाया जा रहा था । होम वर्क में भी वही काम । व्यस्त रखने के लिए उसे शीट  पर रंगने का कार्य दे दिया जाता । पढ़ाई लिखाई में पूरी तरह असफल  होने पर जब उसे साइकोलॉजिस्ट को दिखाया गया तो पता  चला कि उसे मानसिक मंदता के साथ - साथ आटिज्म की भी समस्या है ।  तब उसे स्कूल से निकाल कर रिहैबिलिटेशन सेंटर में  डाला गया है, जहाँ  वह काफी कुछ सीख रहा है । पानी के लिए गिलास की तरफ इशारा करता है । ए बी सी डी अक्षरों को पहचानने लगा है । 
'स ' एक तीस- पैतीस  की उम्र का व्यक्ति है जो एकदम शान्त रहता  है । कुछ भी नहीं बोलता है। सेंटर में उसे तब लाया गया जब उसके सीखने का दौर निकल गया  । लेकिन अब वह थोड़ा बहुत लोगों को पहचानने लगा है । 
'द ' एक साढ़े तीन साल की प्यारी सी बच्ची है । डा. माता पिता की वह बहुत लाड़ली है । लेकिन वह भी ऑंख  से ऑंख मिला कर बात नहीं करती । कुछ ही शब्दों का प्रयोग करती है । वस्तु की ओर केवल  इशारा करती है । उसकी डा. माँ ने बताया कि ढ़ाई वर्ष की उम्र तक वह काफी शब्द बोलती  थी लेकिन अब वह कई शब्द भूलने लगी है । 
       ऐसे  ही कुछ अनुभव हैं मेरे, जो मुझे एक स्वयं सेवी के रूप में बतौर स्पेशल एजूकेटर  नि:शक्तजनों की सेवारत कुछ समाज सेवी संस्थाओं में काम के दौरान मिले । उपर्युक्त सभी  उदाहरण आटिज्म के लक्षण स्पष्ट दर्शाते हैं ।   ऐसे कई आटिज्म प्रभावित बच्चे हो सकते हैं जिनकी अब तक पहचान नहीं हो पाई हो।  माता - पिता की उदासीनता या झिझक के चलते ऐसे बच्चे असामान्य जीवन जीने को विवश हैं  । आटिज्म से प्रभावित माता पिता या अभिभावकों की  झिझक को खत्म कर उन्हें अपने बच्चे के पुनर्वास की दिशा में प्रेरित करना ही मेरे इस  लेख का उद्देश्य है जो मैं 2 अप्रैल से प्रारंभ विश्व आटिज्म सप्ताह के मौके पर  आपसे बांटना चाहती हूँ । 
       'आटिज्म  को हिन्दी में स्वलीनता, स्वपरायणता अथवा स्वत: प्रेम कहते हैं । जैसा कि नाम  से ही स्पष्ट है, ' आटिज्म  ' यानि  स्वलीनता से ग्रसित व्यक्ति बाहरी दुनिया से बेखबर अपने आप में ही लीन रहता है । सुनने  के लिए कान स्वस्थ है, देखने के लिए ऑंखें ठीक हैं फिर भी वह अपने आस पास  के वातावरण से अनजान रहता है ।
       आज  दुनिया की लगभग 7  करोड़ आबादी आटिज्म से प्रभावित हैं । विश्व में आटिज्म प्रभावितों की संख्या एड्स , मधुमेह और कैंसर से पीड़ित रोगियों की मिली जुली संख्या  से भी अधिक होने की सम्भावना है। मोटे तौर पर प्रति एक हजार जनसंख्या में एक आटिज्म  से प्रभावित होता है । वर्ष 1980 से अब तक किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों के ऑंकड़ों पर  नजर डालें तो ज्ञात होगा कि इस बीच आटिज्म समस्या में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोत्तरी हुई  है । सम्भवत: इसका कारण लोगों में इसके प्रति बढ़ती जागरूकता, डायग्नोसिस के तरीकों में बदलाव तथा सम्बन्धित सेवाओं  की सुलभता रही है । 
       पहली  बार सन् 1938  में वियना युनिवर्सिटी के हास्पिटल में कार्यरत हैंस एस्परजर ने आटिज्म शब्द का इस्तेमाल  किया था । एस्परजर उन दिनों आटिज्म स्प्रेक्ट्रम (ए.एस.डी.) के एक प्रकार पर खोज कर  रहे थे । बाद में 1943  में जॉन हापकिन हास्पिटल के कॉनर लियो ने सर्वप्रथम 'आटिज्म ' को अपनी रिपोर्ट में वर्णित किया था । कॉनर ने ग्यारह  बच्चों में पाई गई एक जैसी व्यवहारिक समानताओं पर आधारित रिर्पोट तैयार की थी । 
       अध्ययनों  व सर्वेक्षणों के आधार पर यह बात सामने आयी है कि आटिज्म की समस्या लड़कियों की अपेक्षा  लड़कों में कई गुना ज्यादा है ।जिसका अनुपात 1: 4.3 है । भारत में अब तक एक  करोड़ से ज्यादा आटिज्म से प्रभावित हैं । 
       ' आटिज्म ' मस्तिष्क विकास जनित जटिल किस्म का स्नायु विकार है, जो आजीवन रहता है । यह विकार जीवन के प्रथम तीन वर्षो  में ही परिलक्षित होता है और व्यक्ति की सामाजिक कुशलता और संप्रेषण क्षमता पर विपरीत  प्रभाव डालता है । यह समस्या वंशानुगत है, हालाँकि कौन सा जीन इस समस्या का कारक है? अज्ञात है । आटिज्म परवेसिव डेवलॅपमेंटल डिस्आर्डर (पी.डी.डी.) के  पाँच प्रकारों में से एक है ।आटिज्म को केवल एक  लक्षण के आधार पर पहचाना नहीं जा सकता, बल्कि  लक्षणों के पैटर्न के आधार पर ही आटिज्म की पहचान की जा सकती है । सामाजिक कुशलता व  संप्रेषण का अभाव, किसी कार्य को बार-बार दोहराने की प्रवृत्ति  तथा सीमित रुझान इसके प्रमुख लक्ष्ण हैं। एक आम आदमी के लिए आटिज्म की पहचान करना काफी  मुश्किल है । इसके मूल में दो कारण हो सकते हैं । एक तो आटिस्टिक व्यक्ति की शारीरिक  संरचना में प्रत्यक्ष तौर पर कोई कभी नहीं होती । अन्य सामान्य व्यक्तियों जैसी ही  होती है । दूसरा बच्चे की तीन वर्ष की उम्र में ही आटिज्म के लक्ष्ण दिखाई देते हैं,  इससे पहले नहीं । 
       आटिज्म  को  इंडिविजुअल विथ डिस्एबिलिटी एजुकेशन एक्ट  (आई.डी.ई.ए.) के अंतर्गत लिया गया है । इस अधिनियम में आटिज्म प्रभावितों की शीघ्र  पहचान, परीक्षण  तथा स्पीच थेरैपी की सेवाएं सम्मिलित हैं । आई.डी.ई.ए. अधिनियम 21 वर्ष तक के आटिज्म प्रभावितों के शिक्षा हेतु मार्गदर्शी  की भूमिका का निर्वहन करता है व साथ ही उनका हित संरक्षण भी । दिल्ली स्थित रिहैबिलिटेशन काउंसिल ऑफ इंडिया (आर.सी.आई.) ऑटिज्म सहित अन्य विकलांगताओं  से ग्रसित व्यक्तियों के पुनर्वास एवं संरक्षण कार्य का दायित्व निभाती है । 
       आटिज्म  प्रभावित बच्चों की सबसे बड़ी समस्या वाक् व भाषागत होती है । ऐसे बच्चों में मस्तिष्क  में आए स्नायु विकार के कारण संप्रेषण की डीकोडिंग न हो पाने के कारण बोलने में दिक्कत  का सामना करना पड़ता है । आटिज्म से प्रभावित बच्चे को वाक् व भाषा की समस्या के साथ - साथ व्यवहार जनित समस्या भी हो सकती है । पूर्व में  वर्णित ' अ  ' का  उदाहरण देखें तो पाएंगे कि ऐसे बच्चे अपनी भावनाओं को व्यक्त कर पाने में स्वयं को  असमर्थ पाते हैं । परिणाम स्वरूप उनका व्यवहार असामान्य हो जाता है । 
       विभिन्न  थेरैपी, एक्सपर्ट  का मानना है कि आटिज्म से प्रभावित बच्चों को थेरैपी देना केवल थेरैपिस्ट का ही दायित्व  नहीं है, अपितु  माता पिता की सक्रिय भागीदारी ही ऐसे बच्चों के पुनर्वास में सहायक होती है। स्ट्रक्चर्ड  टीचिंग प्रोग्राम के तहत थिरैपिस्ट द्वारा दिये गए थेरैपी प्लान को अगर बच्चे के माता  पिता या अभिभावक घर पर भी उसी क्रम से दोहराएं तो आशातीत परिणाम अर्जित किये जा सकते  हैं। 
       नेशनल  रिहेब्लिटेशन काउंसिल के अनुसार स्पीच थैरेपी  तभी लाभकारी होगी जब बचपन से ही स्पीच थैरेपी का प्रारंभ, उसकी स्वाभाविक संप्रेषण कला को बढ़ावा मिले,बच्चे  द्वारा संप्रेषण कला सीख लेने के पश्चात सीखे गये ज्ञान का सामान्यीकरण हो। साथ ही  बच्चे के भाषागत् अथवा व्यवहारगत समस्या को दूर कर गुणात्मक सुधार लाने के बड़े लक्ष्य  तय कर लिए जाएं । फिर उन बड़े लक्ष्यों में एक लक्ष्य को चुनकर उसे छोटे-छोटे पड़ाव में  निर्धारित कर देना चाहिए । तत्पश्चात थिरैपिस्ट की मदद से योजनाबध्द तरीके से वांछित  परिणाम प्राप्त होने तक थेरैपी जारी रखनी चाहिए । थेरैपी देते वक्त कुछ बातों का ध्यान  रखना अत्यावश्यक है । थेरैपी दौरान जब बच्चा आशा के अनुरूप कार्य कर लेता है तो उसका  उत्साहवर्धन करने के उद्देश्य से तुरन्त उसे कोई टोकन, टॉफी  या शाबासी अवश्य देना चाहिए । दूसरी बात बच्चे को स्पीच थेरैपी देते वक्त टीचर एवं  बच्चे का अनुपात 1:1 होना चाहिए । क्योंकि कई बार देखने में  आता है कि आटिज्म से प्रभावित बच्चे को अन्य समस्याओं जैसे बधिरता अंधत्व, सेरेब्रल पालसी (प्रमस्तिष्क पक्षापात) या फिर मानसिक मंदता जैसे एक या  एक से अधिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है । ऐसे में आटिज्म के साथ जुड़ी अन्य समस्याओं  को भी ध्यान में रखकर स्पीच थेरैपी दिया जाना चाहिए। सीखने की यह प्रक्रिया दीर्घ कालिक  है । संयम, समर्पण व सतत प्रयास पर ही सफलता का दारोमदार टिका  है । आटिज्म से प्रभावित बच्चों में मानसिक मंदता से ग्रसित बच्चों के उलट इनका आई.क्यू  . लेवल आमतौर पर सामान्य या उससे अधिक ही होता है । ऐसे बच्चे नृत्य, कला, संगीत अथवा तकनीक के क्षेत्र में काफी कुशल  भी हो सकते हैं । 
       आटिज्म  से प्रभावित बच्चे / व्यक्ति के जीवन में गुणात्मक सुधार लाना तथा उसे आत्म निर्भर  बनाना ही इलाज का मुख्य ध्येय होना चाहिए । इसके लिए शीघ्र हस्तक्षेप यानि अर्ली इंटरवेंशन  के जरिये समस्या की शीघ्र अतिशीघ्र पहचान कर उसका निदान करना होगा । बिहेवियरल ऐनेलिसिस, स्ट्रक्चर्ड टीचिंग सिस्टम, डेवलपमेंटल मॉडल, स्पीच लैंग्वेज थेरैपी, सामाजिक दक्षता थैरेपी एवं आक्यूपेशनल थेरैपी की मदद  से आटिज्म से प्रभावित बच्चे के जीवन को काफी हद तक सुधार कर उसे समाज की मुख्य धारा  से जोड़ा जा सकता है । 
कुछ अन्य शोध 
आज कई रिसर्च इंस्टीटयूट द्वारा आटिज्म के कारणों व निदान पर निरन्तर शोध कार्य  जारी है । ये शोध आटिज्म प्रभावितों के लिए कितने लाभकारी हैं भविष्य में तय होगा।
·                बी.एम.सी. पीडियाट्रिक्स  की रिर्पोट के मुताबिक प्रेशराइज्ड आक्सीजन चैम्बर में आटिस्टिक बच्चों को दिन में  दो बार, चार हफ्ते तक रखने से 80 प्रतिशत बच्चों में सुधार के लक्षण दिखाई दिए । उनकी अतिक्रियाशीलता (हाइपर  एक्टिविटी), तुनक मिजाजी, एवं बोलने  की क्षमता का विकास हुआ । समझा जाता है कि मस्तिष्क में आक्सीजन का स्तर बढ़ने से बच्चों  को फायदा हुआ होगा। फ्लोरिडा, इन्टरनेशनल चाइल्ड डेवलॅपमेंट  रिर्पोट ने इस पर शोध किए जाने की जरूरत है । 
·                जापान के एक शोधर्  कत्ता के अनुसार कम उम्र में पिता बनने वाले पुरूषों के बच्चों की तुलना में अधिक उम्र  में पिता बनने वाले पुरूषों के बच्चों को स्वलीनता यानि आटिज्म का खतरा बढ़ जाता है।  
·                संगीत भी आटिस्टिक  बच्चों में मददगार साबित हो सकता है । एवर्स्टन में नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी की प्रयोगशाला  में किए गए शोध के अनुसार वाद्ययन्त्र बजाने से ब्रेनस्टेम (मस्तिष्क का निचला हिस्सा)  में स्वचालित प्रक्रिया पर असर पड़ता है । कई वर्षो का संगीत प्रशिक्षण ध्वनियों से  भाषा और भावनाओं को व्यक्त करने में भी सुधार हो सकता है। 
इति । 
       
  
              
 
 
 
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